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________________ प्रागमोत्तर जैन-वर्शन २३५ द्रव्य ही जब सत् है, तो सत् और द्रव्य के लक्षण में भेद नहीं होना चाहिए । इसी अभिप्राय से 'सत्' लक्षण और 'द्रव्य' लक्षण अलग अलग न करके एक ही द्रव्य के लक्षण रूप से दोनों लक्षणों का समन्वय प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कर दिया है ।५० सत्, द्रव्य, सत्ता : द्रव्य के उक्त लक्षण में जो यह कहा गया है, कि 'द्रव्य अपने स्वभाव का परित्याग नहीं करता' वह 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' को लक्ष्य करके है । द्रव्य का यह भाव या स्वभाव क्या है, जो त्रैकालिक है ? इस प्रश्न का उत्तर आचार्य कुन्दकुन्द ने दिया, कि 'सम्भावो हि सभावो. दव्वस्स सव्वकालं' (प्रवचन० २.४) तीनों काल में द्रव्य का जो सद्भाव है, अस्तित्व है, सत्ता है, वही स्वभाव है। हो सकता है, कि यह सत्ता कभी किसी गुण रूप से, कभी किसी पर्याय रूप से, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से उपलब्ध हो । यह भी माना कि इन सभी में अपने अपने विशेष लक्षण हैं, तथापि उन सभी का सर्वगत एक लक्षण 'सत्' है ही"९, इस बात को स्वीकार करना ही चाहिए। यही 'सत्' द्रव्य का स्वभाव है । अतएव द्रव्य को स्वभाव से सत् मानना चाहिए।६० यदि वैशेषिकों के समान द्रव्य को स्वभाव से सत् न मानकर द्रव्य वृत्ति सत्तासामान्य के कारण सत् माना जाए, तब स्वयं द्रव्य असत् हो जाएगा, या सत् से अन्य हो जाएगा। अतएव द्रव्य स्वयं सत्ता है, ऐसा ही मानना चाहिए ।६१ ५७ वाचक के दोनों लक्षणों को विकल्प से भी द्रव्य के लक्षणरूप से प्राचार्य कुन्दकुन्द ने निर्दिष्ट किया है-पंचास्ति० १० । ५८ 'गुणेहि सहपज्जवेहिं चित्त हिं"उप्पादव्वयधुवतहि' प्रवचन० २.४ । ५५ प्रवचन० २.५ । ६° वही २.६ । प्रवचन० २.१३ । २.१८ । १.६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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