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________________ श्रीगमोत्तर जैन दर्शन नय- संख्या : तत्त्वार्थ सूत्र के स्वोपज्ञभाष्य-संमत और तदनुसारी टीका-संमत पाठ के आधार पर यह सिद्ध है, कि वाचक ने पाँच मूल नय माने हैं "नंगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्र शब्दा नया:" (१.३४) । यह ठीक है, कि ग्रागम में स्पष्टरूप से पांच नहीं, किन्तु सात मूल नयों का उल्लेख है २ । किन्तु अनुयोग में शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत की सामान्य संज्ञा शब्दनय दी गई है - " तिण्हं सहनयाणं" ( सू० १४८, १५१ ) । अतएव वाचक ने अंतिम तीनों को शब्द सामान्य के अन्तर्गत करके मूल नयों की पांच संख्या बतलाई है, सो अनागमिक नहीं । दार्शनिकों ने जो नयों के अर्थ नय और शब्द - नय४ 3 ऐसे दो विभाग किए हैं, उसका मूल भी इस तरह से आगम जितना पुराना है, क्योंकि आगम में जब अंतिम तीनों को शब्द-नय कहा, तब अर्थात् सिद्ध हो जाता है, कि प्रारम्भ के चार अर्थ नय हैं । २२७ वाचक ने शब्द के तीन भेद किए हैं- सांप्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत | प्रतीत होता है, कि शब्द सामान्य से विशेष शब्द नय को पृथक् करने के लिए वाचक ने उसका सार्थक नाम सांप्रत रखा है । नय का लक्षणः अनुयोगद्वार सूत्र में नय-विवेचन दो स्थान पर आया है । अनुयोग का प्रथम मूल द्वार उपक्रम है । उसके प्रभेद रूप से नय-प्रमाण का विवेचन किया गया है, तथा अनुयोग के चतुर्थ मूलद्वार नय में भी नयवर्णन है । नय-प्रमाण वर्णन तीन दृष्टान्तों द्वारा किया गया है - प्रस्थक, ४१ दिगम्बर पाठ के अनुसार सूत्र ऐसा है- 'नैगमसंग्रहव्यवहारर्जु सूत्र शब्दसमभिरूढैवम्भूता नयाः ।” ४२ अनुयोगद्वार सू० १५६ । स्थानांग सू० ५२२ । ४३ प्रमाण न० ७.४४,४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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