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भागम-युग का जैन-दर्शन
नय-निरूपण :
वाचक उमास्वाति ने कहा है, 'कि नाम आदि निक्षेपों से न्यस्त जीव आदि तत्त्वों का अधिगम प्रमाण और नय से करना चाहिए । इस प्रकार हम देखते हैं कि निक्षेप, प्रमाण और नय मुख्यत: इन तीनों का उपयोग तत्त्व के अधिगम में है । यही कारण है कि सिद्धसेन आदि सभी दार्शनिकों ने उपायतत्व के निरूपण में प्रमाण, नय और निक्षेप का विचार किया है।
अनुयोग के मूलद्वार उपक्रम, निक्षेप अनुगम और नय ये चार हैं । इनमें से दार्शनिक युग में प्रमाण, नय और निक्षेप ही का विवेचन मिलता है । नय और निक्षेप ने तो अनुयोग के मूल द्वार में स्थान पाया है, पर प्रमाण स्वतन्त्र द्वार न होकर, उपक्रम द्वार के प्रभेद रूप से आया है।
__अनुयोगद्वार के मत से भावप्रमाण तीन प्रकार का है-गुणप्रमाण (प्रत्यक्षादि), नयप्रमाण और संख्याप्रमाण। अतएव तत्त्वत: देखा जाए, तो नय और प्रमाण की प्रकृति एक ही है। प्रमाण और नय का तात्त्विक भेद नहीं है । दोनों वस्तु के अधिगम के उपाय हैं। किन्तु प्रमाण अखण्ड वस्तु के अधिगम का उपाय है और नय वस्त्वंश के अधिगम का। इसी भेद को लक्ष्य करके जैनशास्त्रों में प्रमाण से नय का पार्थक्य मानकर दोनों का स्वतन्त्र विवेचन किया जाता है। यही कारण है, कि वाचक ने भी 'प्रमाणनयैरधिगमः (१.६) इस सूत्र में प्रमाण से नय का पृथकउपादान किया है।
35 "एषां च जीवादितत्त्वानां यथोद्दिष्टानां नामादिभियंस्तानां प्रमाणनयं रधिगमो भवति ।" तत्त्वार्थ भा० १.६
३ अनुयोगद्वार सू० ५६ । 3८ अनुयोग द्वार सू० ७० 3९ अनुयोगद्वार सू० १४६ । ४० तत्त्वार्थभा० टीका० १.६ ।
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