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________________ मागमोत्तर जैन-दर्शन २१६ बाद के जैन दार्शनिकों ने इस विषय में वाचक उमास्वाति का अनुसरण नहीं किया, बल्कि लोकानुसरण करके इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है। प्रमाण संख्यान्तर का विचार : जब वाचक ने प्रमाण के दो भेद किए, तब प्रश्न होना स्वाभाविक है कि जैनागम में जो प्रत्यक्षादि चार प्रमाण माने गए हैं, उसका क्या स्पष्टीकरण है ? तथा दूसरों ने जो अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, संभव और अभाव प्रमाण माने हैं, उनका इन दो प्रमाणों के साथ क्या मेल है ? उन्होंने उसका उत्तर दिया कि आगमों में प्रमाण के जो चार भेद किए गए हैं, वे नयवादान्तर से हैं२४ तथा दर्शनान्तर में जो अनुमानादि प्रमाण माने जाते हैं, उनका समावेश मतिश्रुतरूप परोक्ष प्रमाण में करना चाहिए। क्योंकि उन सभी में इन्द्रियार्थसन्निकर्षरूप निमित्त उपस्थित हैं। इस उत्तर से उनको संपूर्ण संतोष नहीं हुआ, क्योंकि मिथ्याग्रह होने के कारण जैनेत र दार्शनिकों का ज्ञान आगमिक परिभाषा के अनुसार अज्ञान ही कहा जाता है। अज्ञान तो अप्रमाण है। अतएव उन्होंने इस आगमिक दृष्टि को सामने रख कर एक दूसरा भी उत्तर दिया कि दर्शनान्तर संमत अनुमानादि अप्रमाण ही हैं। उपर्युक्त दो विरोधी मन्तव्य प्रकट करने से उनके सामने ऐसा प्रश्न आया कि दर्शनान्तरीय चार प्रमाणों को नयवाद से प्रमाण-कोटि में गिनते हो और दर्शनान्तरीय सभी अनुमानादि प्रमाणों को मति श्रुत में समाविष्ट करते हो, इसका क्या समाधान है ? २४ तत्त्वार्थ० भा० १.६ । २५ तत्त्वार्थ भा० १.१२ । २६ "प्रप्रमाणान्येव वा । कुतः ? मिथ्यादर्शन-परिग्रहात् विपरीतोपदेशाच्च । मिथ्यादृष्टेहि मतिश्रुतावषयो नियतमज्ञानमेवेति ।" तत्त्वार्थ भा० १.१२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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