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श्रागम-युग का जन-दर्शन
इसका उत्तर यों दिया है - शब्दनय के अभिप्राय से ज्ञान - अज्ञान का विभाग ही नहीं । सभी साकार उपयोग ज्ञान ही हैं । शब्दनय श्रुत और केवल इन दो ज्ञानों को ही मानता है । बाकी के सब ज्ञानों को श्रुत का उपग्राहक मानकर उनका पृथक् परिगणन नहीं करता । इसी दृष्टि से आगम में प्रत्यक्षादि चार को प्रमाण कहा गया है और इसी दृष्टि से अनुमानादि का अन्तर्भाव मति श्रुत में किया गया है" । प्रमाण और अप्रमाण का विभाग नैगम, संग्रह और व्यवहार नय के अवलम्बन से होता है, क्योंकि इन तीनों नयों के मत से ज्ञान और अज्ञान दोनों का पृथक् अस्तित्व माना गया है" ।
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प्रमाण का लक्षण :
वाचक के मत से सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण का लक्षण है । सम्यग्शब्द की व्याख्या में उन्होंने कहा है, कि जो प्रशस्त अव्यभिचारी या संगत हो, वह सम्यग् है । इस लक्षण में नैयायिकों के प्रत्यक्ष लक्षणगत अव्यभिचारिविशेषण और उसी को स्पष्ट करने वाला संगत विशेषण जो आगे जाकर बाधविवर्जित या अविसंवाद रूप से प्रसिद्ध हुआ, आए हैं, किन्तु उसमें 'स्वपरव्यवसाय' ने स्थान नहीं पाया है । वाचक ने कार्मण शरीर को स्व और अन्य शरीरों की उत्पत्ति में कारण सिद्ध करने के लिए आदित्य की स्वपरप्रकाशकता का दृष्टान्त दिया है । किन्तु उसी दृष्टान्त के बल से ज्ञान को स्वपरप्रकाशकता की सिद्धि, जैसे आगे के आचार्यों ने की है, उन्होंने नहीं की ।
ज्ञानों का सहभाव और व्यापार :
वाचक उमास्वाति ने आगमों का अवलम्बन लेकर ज्ञानों के सहभाव का विचार किया है ( १,३१) । उस प्रसंग में एक प्रश्न उठाया
२७ तत्वार्थ भा० १.३५ ।
२८ तत्वार्थ भा० १.३५ । २९ तत्त्वार्थ भा०
१.१ ।
3° तत्वार्थ भा० २.४६ ।
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