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________________ २१८ प्रागम-युग का जैन-दर्शन परोक्ष ऐसे दो प्रकार होने पर भी उनका वर्णन न करके दर्शनान्तर के अनुसार प्रमाण के तीन या चार प्रकार बताए गए हैं । अतएव स्वतन्त्र जैन दृष्टि से प्रमाण की चर्चा की आवश्यकता रही। इसकी पूर्ति वाचक ने की है। वाचक ने समन्वय कर दिया, कि मत्यादि पाँच ज्ञान ही प्रमाण है। प्रत्यक्ष-परोक्ष : __मत्यादि पाँचों ज्ञानों का नामोल्लेख करके वाचक ने कहा है कि ये ही पाँच ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणों में विभक्त है। स्पष्ट है, कि वाचक ने ज्ञान के प्रागम प्रसिद्ध प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद को लक्ष्य करके ही प्रमाण के दो भेद किए हैं। उन्होंने देखा कि जैन आगमों में जब ज्ञान के दो प्रकार ही सिद्ध हैं, तब प्रमाण के भी दो प्रकार ही करना उचित है। अतएव उन्होंने अनुयोग और स्थानांग गत प्रमाण के चार या तीन भेद, जो कि लोकानुसारी हैं, उन्हें छोड़ ही दिया। ऐसा करने से ही स्वतन्त्र जैनदृष्टि से प्रमाण और पंच ज्ञान का सम्पूर्ण समन्वय सिद्ध हो जाता है और जैन आगमों के अनुकूल प्रमाण-व्यवस्था भी बन जाती है। वाचक उमास्वाति लौकिक परंपरा को अपनी आगमिक मौलिक परंपरा के जितना महत्व देना चाहते न. थे, और दार्शनिक जगत में जैन आगमिक परंपरा का स्वातंत्र्य भी दिखाना चाहते थे । यही कारण है, कि अनुयोगद्वार में जो लोकानुसरण करके इन्द्रिय प्रत्यक्ष रूप आंशिकमतिज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है, उसे उन्होंने अमान्य रखा । इतना ही नहीं, किन्तु नन्दी में जो 'इन्द्रियजमति को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है, उसे भी अमान्य रखा और प्रत्यक्ष-परोक्ष की प्राचीन मौलिक आगमिक व्यवस्था का अनुसरण करके कह दिया कि मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं और अवधि, मनःपर्यय और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण हैं ।२3 २१ तत्वार्थ० १.१० । २२ "मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम् ॥६॥ तत् प्रमाणे ॥१०॥" तत्वार्य० १.। २3 "प्राद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।" तत्त्वार्थ १.१०,११ । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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