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आगम-युग का जैन-दर्शन
स्थिर ऐसे परस्पर विरोधी धर्मों की भूमि कैसे हो सकता है ? इस विरोध का परिहार भी वाचक उमास्वाति ने "अपितानपितसिद्धः।" (५. ३१.) सूत्र से किया है और उसकी व्याख्या में आगमोक्त पूर्वप्रतिपादित सप्तभंगी का निरूपण किया है। सप्तभंगी का वही आगमोक्त पुराना रूप प्राय: उन्हों शब्दों में भाष्य में उद्धृत हुआ है । जैसा आगम में वचनभेद को भंगों की योजना में महत्त्व दिया गया है, वैसा वाचक उमास्वाति ने भी किया है । अवक्तव्य भंग का स्थान तीसरा है । प्रथम के तीन भंगों की योजना दिखाकर शेष विकल्पों को शब्दतः उद्धृत नहीं किया, किन्तु प्रसिद्धि के कारण विस्तार करना उन्होंने उचित न समझकर'देशादेशेन विकल्पयितव्यम् ऐसा आदेश दे दिया है।
वाचक उमास्वाति ने सत् के चार भेद बताए हैं-१. द्रव्यास्तिक, २. मातृकापदास्तिक, ३. उत्पन्नास्तिक, और ४. पर्यायास्तिक । सत् का ऐसा विभाग अन्यत्र देखा नहीं जाता, इन चार भेदों का विशेष विवरण वाचक उमास्वाति ने नहीं किया। टीकाकार ने व्याख्या में मतभेदों का निर्देश किया है । प्रथम के दो भेद द्रव्यनयाश्रित हैं और अन्तिम दो पर्यायनयाश्रित हैं। द्रव्यास्तिक से परमसंग्रहविषयभूत सत् द्रव्य और मातृकापदास्तिक से सत् द्रव्य के व्यवहारनयाश्रित धर्मास्तिकायादि द्रव्य और उनके भेद-प्रभेद अभिप्रेत हैं। प्रत्येक क्षण में नवनवोत्पन्न वस्तु का रूप उत्पन्नास्तिक से और प्रत्येक क्षण में होने वाला विनाश या भेद पर्यायास्तिक से अभिप्रेत है ।
द्रव्य, पर्याय और गुण का लक्षण :
जैन आगमों में सत् के लिए द्रव्य शब्द का प्रयोग आता है। किन्तु द्रव्य शब्द के अनेक अर्थ प्रचलित थे । अतएव स्पष्ट शब्दों में जैन संमत द्रव्य का लक्षण भी करना आवश्यक था। उत्तराध्ययन में मोक्षमार्गाध्ययन (२८) है। उसमें ज्ञान के विषयभूत द्रव्य, गुण और
प्रमाणमी० भाषा० पृ० ५४ ।
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