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________________ आगमोत्तर जैन-दर्शन २०६ कल्पना को संग्रहनय का अवलम्बन करके जैन परिभाषा का रूप उन्होंने दे दिया है। अनेकान्तवाद के विवेचन में हमने यह बताया है, कि आगमों में तिर्यग् और ऊर्ध्व दोनों प्रकार के पर्यायों का आधारभूत द्रव्य माना गया है । जो सर्व द्रव्यों का अविशेष-सामान्य था-अविसेसिए दवे विसेसिए जीवदव्वे प्रजीवदव्वे य।" अनुयोग० सू० १२३ । पर उसकी 'सत्' संज्ञा आगम में नहीं थी। वाचक उमास्वाति को प्रश्न होना स्वाभाविक है, कि दार्शनिकों के परमतत्त्व 'सत्' का स्थान ले सके ऐसा कौन पदार्थ है ? वाचक ने उत्तर दिया कि द्रव्य ही सत् है" । वाचक ने जैनदर्शन की प्रकृति का पूरा ध्यान रख करके 'सत्' का लक्षण कर दिया है, कि 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' (५.२६)। इससे स्पष्ट है कि वाचक ने जैनदर्शन के अनुसार जो 'सत्' की व्याख्या की है, वह औपनिषद-दर्शन और न्याय वैशेषिकों की 'सत्ता' से जैनसंमत 'सत्' को विलक्षण सिद्ध करती है। वे 'सत्' या सता को नित्य मानते हैं। वाचक उमास्वाति ने भी 'सत्' को कहा तो नित्य, किन्तु उन्होंने 'नित्य' की व्याख्या ही ऐसी की है, जिससे एकान्तवाद के विष से नित्य ऐसा सत् मुक्त हो और अखण्डित रह सके । नित्य का लक्षण उमास्वाति ने किया है कि"तहभावाव्ययं नित्यम् ।" ५. ३० । और इसकी व्याख्या की कि-यत् सतो भावान व्येति न ज्येष्यति तन्नित्यम् ।' अर्थात् उत्पाद और व्यय के होते हुए भी जो सद्रूप मिटकर असत् नहीं हो जाता, वह नित्य है। पर्यायें बदल जाने पर भी यदि उसमें सत् प्रत्यय होता है, तो वह नित्य ही है, अनित्य नहीं। एक ही सत् उत्पादव्यय के कारण अस्थिर और ध्रौव्य के कारण ___५ "धर्मादीनि सन्ति इति कथं गृह ने ? इति । प्रत्रोच्यते लक्षणतः । किञ्च सतो लक्षणमिति ? अत्रोच्यते-'उत्पादव्ययधौम्पयुक्त सत्' ।" तत्वार्थ भा० ५. २६ । सर्वार्थसिद्धि में तथा श्लोकवार्तिक में 'सद् द्रव्यलक्षणम्' ऐसा पृथक सूत्र भी है-५.२६ । 'तुलना करो “यस्य गुणान्तरेषु अपि प्रादुर्भवत्सु तत्वेन विहन्यते तद् द्रव्यम् । किं. पुनस्तत्त्वम्" ? तद्भावस्तत्त्वम् पातंजलमहाभाष्य ५.१.११६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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