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________________ २०८ आगम-युग का जैन दर्शन वाचक ने इस विषय में जैनदर्शन का मन्तव्य स्पष्ट किया, कि तत्त्व, अर्थ, तत्त्वार्थ और पदार्थ एकार्थक हैं और तत्त्वों की संख्या सात है | आगमों में पदार्थ की संख्या नव बताई गई है, ( स्था० सू० ६६५ ) जब कि वाचक ने पुण्य और पाप को बन्ध में अन्तर्भूत करके सात तत्त्वों का ही उपादान किया है । यह वाचक की नयी सूभ जान पड़ती है । सत् का स्वरूप : वाचक उमास्वाति ने नयों की विवेचना में कहा है कि 'सर्वमेकं सदविशेषात् " ( तत्त्वार्थ भा० १.३५ ) । अर्थात् सब एक हैं, क्योंकि सभी समानभाव से सत् हैं । उनका यह कथन ऋग्वेद के दीर्घतमा ऋषि के 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' (१.१६४.४६ ) की तथा उपनिषदों के सन्मूलक सर्वप्रपञ्च की उत्पत्ति के वाद की ( छान्दो० ६.२ ) याद दिलाता है । स्थानांगसूत्र में 'एगे प्राया' ( सू० १) तथा 'एगे लोए' ( सू० ६) जैसे सूत्र आते हैं । उन सूत्रों की संगति के लिए संग्रहनय का अवलम्बन लेना पड़ता है । आत्मत्वेन सभी आत्माओं को एक मानकर 'एगे श्राया' इस सूत्र को संगत किया जा सकता है तथा 'पञ्चास्तिकाय भयो लोकः' के सिद्धान्त से 'एगे लोए' सूत्र की भी संगति हो सकती है । यहाँ इतना ही स्पष्ट है, कि आगमिक मान्यता की मर्यादा का अतिक्रमण बिना किए ही संग्रहनय का अवलम्बन करने से उक्त सूत्रों की संगति हो जाती है । किन्तु उमास्वाति ने जब यह कहा कि 'सर्वमेकं सदविशेषात् तब इस वाक्य की व्याप्ति किसी एक या समग्र द्रव्य तक ही नहीं है, किन्तु द्रव्यगुणपर्यायव्यापी महासामान्य का भी स्पर्श करती है । उमास्वाति के समयपर्यन्त में वेदान्तियों के सद्ब्रह्म की और न्याय-वैशेषिकों के सत्तासामान्यरूप महासामान्य की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। उसी दार्शनिक ४ 'सप्तविधोऽर्थस्तस्वम् १.४ । १.२ । “एते वा सप्तपदार्थास्तत्त्वानि । १.४ । तत्त्वार्थश्रद्धानम् १.२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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