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वाद-विद्या-खण्ड
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की रचना हुई है । स्थानांगगत अपाय और उपाय का भी यही भाव है कि अपाय अर्थात् दूषण और उपाय अर्थात् साधन । दूसरे के पक्ष में अपाय बताना चाहिये और स्वपक्ष में अपाय से बचना चाहिए | स्वपक्ष की सिद्धि के लिए उपाय करना चाहिए और दूसरे के उपाय में अपाय का प्रतिपादन करना चाहिए ।
(३) स्थापना कर्म -- इष्ट अर्थ की सम्यक्प्ररूपणा करना स्थापनाकर्म है । प्रतिवादी द्वारा व्यभिचार बतलाए जाने पर व्यभिचार निवृत्ति द्वारा यदि हेतु की सम्यग् स्थापना वादी करता है तब वह स्थापनाकर्म है
"संवभिचार हेतुं सहसा वोत्तुं तमेव उवबूहइ सप्पसर सामत्थं चप्पणो नाउ ॥
अभयदेव ने इस विषय में निम्नलिखित प्रयोग वरसाया है। 'अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्" यहाँ कृतकत्वहेतु सव्यभिचार है, क्योंकि वर्णात्मक शब्द नित्य है । किन्तु वादी वर्णात्मक शब्द को भी अनित्य सिद्ध कर देता है कि 'वर्णात्मा शब्दः कृतकः, निजकारणभेदेन भिद्यमानत्वात् घटपटादिवत्" । यहाँ घटपटादि के दृष्टान्त से वर्णात्मक शब्द का अनित्यत्व स्थापित हुआ है, अतएव यह स्थापनाकर्म हुआ ।
हि ।
६८ ॥
'स्थापना कर्म' की भद्रबाहुकृत व्याख्या को अलग रखकर अगर शब्दसादृश्य की ओर ही ध्यान दिया जाय, तो चरकसंहितागत स्थापना से इसकी तुलना की जा सकती है । चरक के मत से किसी प्रतिज्ञा को सिद्ध करने के लिए हेतु दृष्टान्त उपनय और निगमन का आश्रय लेना स्थापना है । अर्थात् न्याय वाक्य दो भागों में विभक्त है- प्रतिज्ञा और स्थापना । प्रतिज्ञा से अतिरिक्त जिन अवयवों से वस्तु स्थापित - सिद्ध होती है उनको स्थापना कहा जाता है ।
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" स्थापना नाम तस्या एव प्रतिज्ञायाः हेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनैः स्थापना । पूर्व हि प्रतिज्ञा पश्चात् स्थापना । किं हि श्रप्रतिज्ञातं स्थापयिष्यति ।" वही ३१. । आचार्य भद्रबाहु ने जो अर्थ किया है वह अर्थ यदि स्थापना कर्म का
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