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________________ १६२ श्रागम-युग का जैन- दर्शन लिया जाय, तब चरकसंहितागत 'परिहार' के साथ स्थापना कर्म का 'सादृश्य है । क्योंकि परिहार की व्याख्या चरक ने ऐसी की है" परिहारो नाम तस्यैव दोषवचनस्य ( हेतुदोषवचनस्य) परिहरणम्" वही ६० । -- (४) प्रत्युत्पन्नविनाशी - जिससे आपन्न दूषण का तत्काल निवारण हो वह प्रत्युत्पन्नविनाशी है जैसे किसी शून्यवादी ने कहा कि जब सभी पदार्थ नहीं तो जीव का सद्भाव कैसे ? तब उसको तुरंत उत्तर देना कि "जं भणसि नत्थि भावा वयणमिणं श्रत्थि नत्थि जइ प्रत्थि । एव पइन्नाहाणी असो णु निसेहए को णु ॥ ७१ ॥ अर्थात् निषेधक वचन है या नहीं ? यदि है तो सर्वनिषेध नहीं हुआ क्योंकि वचन सत् हो गया । यदि नहीं तो सर्वभाव का निषेध कैसे ? असत् ऐसे वचन से सर्व वस्तु का निषेध नहीं हो सकता । और जीव के निषेध का भी उत्तर देना कि तुमने जो शब्द प्रयोग किया वह तो विवक्षापूर्वक ही । यदि जीव ही नहीं तो विवक्षा किसे होगी ? अजीव को तो विवक्षा होती नहीं । अतएव जो निषेध वचन का संभव हुआ उसी से जीव का अस्तित्व भी सिद्ध हो जाता है । यह उत्तर का प्रकार प्रत्युत्पन्नविनाशी है - दशवै० नि० गा० ७०-७२ । आचार्य भद्रबाहु की कारिका के साथ विग्रहव्यावर्तनी की प्रथम कारिका की तुलना करना चाहिए । प्रतिपक्षी को प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान से निगृहीत करना प्रत्युत्पन्नविनाशी आहरण है । प्रतिज्ञाहानि निग्रह - स्थान न्यायसूत्र ( ५. २. २) चरक ( वही ६१ ) और तर्क - शास्त्र में ( पृ० ३३ ) है | (२) आहरणतद्देश (१) अनुशास्ति-प्रतिवादी के मन्तव्य का आंशिक स्वीकार करके दूसरे अंग में उसको शिक्षा देना अनुशास्ति है जैसे सांख्य को कहना कि सच है आत्मा को हम भी तुम्हारी तरह सद्भूत मानते हैं किन्तु वह अकर्ता नहीं, कर्ता है, क्योंकि वही सुख दुःख का वेदन करता है । अर्थात् कर्मफल पाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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