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________________ १६० आगम-युग का जैन-दर्शन प्रयोजन है। भद्रबाहु ने अपाय के विषय में कहा है कि२२ जो लोग आत्मा को एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य मानते हैं उनके मत में सुखदुख-संसार-मोक्ष की घटना बन नहीं सकती। इसलिए दोनों पक्षों को छोड़कर अनेकान्त का आश्रय लेना चाहिए । दूसरे दार्शनिक जिसे प्रसंगापादन कहते हैं उसकी तुलना अपाय से करना चाहिए। सामान्यतया दूषण को भी अपाय कहा जा सकता है। बादी को स्वपक्ष में दूषण का उद्धार करना चाहिए और परपक्ष में दूषण देना चाहिए। (२) उपाय--इष्ट वस्तु को प्राप्ति या सिद्धि के व्यापार विशेष को उपाय कहते हैं। आत्मास्तित्वरूप इष्ट के साधक सभी हेतुओं का अवलंबन करना उपायोदाहरण है । जैसे आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है फिर भी सुख-दुःखादि धर्म का आश्रय-धर्मी होना चाहिए। ऐसा जो धर्मी है वही आत्मा है तथा जैसे देवदत्त हाथी से घोड़े पर संक्रान्ति करता है, ग्राम से नगर में, वर्षा से शरद में और औदयिकादिभाव से उपशम में संक्रान्ति करता है वैसे ही जीव भी-द्रव्यक्षेत्रादि में संक्रान्ति करता है तो वह भी देवदत्त की तरह है । बौद्धग्रन्थ 'उपायहृदय२४' में जिस अर्थ में उपाय शब्द है उसी अर्थ का बोध प्रस्तुत उपाय शब्द से भी होता है। बाद में वादी का धर्म है कि वह स्वपक्ष के साधक सभी उपायों का उपयोग करे और स्वपक्षदूषणं का निरास करे । अतएव उसके लिए वादोपयोगी पदार्थों का ज्ञान आवश्यक है । उसी ज्ञान को कराने के लिये 'उपायहृदय ग्रंथ २२ 'दव्वादिएहि निच्चो एगतेणेव जेसि अप्पा उ । होइ अभावो तेसि सुहदुहसंसारमोक्खाण ॥५६॥ सुहदुक्खसंपलोगो न विज्जई निच्चवायपक्खंमि । एगंतुच्छेअंमि असुहदुक्खविगप्पणमजुत्त ॥६०॥" दशवै० नि० २३ वही ६३. ६६ । २४ टूचीने चीनी से संस्कृत में इस ग्रन्थ का अनुवाद किया है। उन्होंने जो प्रतिसंस्कृत 'उपाय' शब्द रखा है वह ठोक ही जंचता है। यद्यपि स्वयं टूची को प्रतिसंस्कृत में संदेह है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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