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________________ वाद-विद्या-खण्ड १८६ के विषयभूत पदार्थों का संग्रह करना चाहा है वैसे ही किसी प्राचीन परंपरा का आधार लेकर स्थानांग सूत्र में उदाहरण के नाम से वादोपयोगी पदार्थों का संग्रह किया है । जिस प्रकार न्यायसूत्र से चरक का संग्रह स्वतन्त्र है और किसी प्राचीन मार्ग का अनुसरण करता है उसी प्रकार जैन शास्त्रगत उदाहरण का वर्णन भी उक्त दोनों से पृथक् ही किसी प्राचीन परंपरा का अनुगामी है। ___यद्यपि नियुक्तिकार ने उदाहरण के निम्नलिखित पर्याय बताए हैं किन्तु सूत्रोक्त उदाहरण उन पर्यायों से प्रतिपादित अर्थों में ही सीमित नहीं है जो अगले वर्णन से स्पष्ट हैं "नायमुदाहरणं ति य विद्वैतोवमनि निदरिसणं तहय। एग?"--दशव० नि० ५२। स्थानांगसूत्र में ज्ञात-उदाहरण के चार भेदों का उपभेदोंके साथ जो नामसंकीर्तन है वह इस प्रकार है-सू० ३३८ । १ आहरण २ आहरणतद्देश ३ आहरणतद्दोष ४ उपन्यासोपनय (१) अपाय (१) अनुशास्ति (१) अधर्मयुक्त (१) तद्वस्तुक (२) उपाय (२) उपालम्भ (२) प्रतिलोम (२) तदन्यवस्तुक (३) स्थापनाकर्म (३) पृच्छा (३) आत्मोपनीत (३) प्रतिनिभ (४) प्रत्युत्पन्नविनाशी (४) निश्रावचन (४) दुरुपनीत (४) हेतु उदाहरण के इन भेदोपभेदों का स्पष्टीकरण दशवकालिक नियुक्ति और चूर्णी में है । उसी के आधार पर हरिभद्र ने दशवकालिकटीका में और अभयदेव ने स्थानांगटीका में स्पष्टीकरण किया है । नियुक्तिकार ने अपायादि प्रत्येक उदाहरण के उपभेदों का चरितानुयोग की दृष्टि से तथा द्रव्यानुयोग की दृष्टि से वर्णन किया है किन्तु प्रस्तुत में प्रमाणचर्कोपयोगी द्रव्यानुयोगानुसारी स्पष्टीकरण ही करना इष्ट है। १ प्राहरण (१) अपाय अनिष्टापादन कर देना अपायोदाहरण है । अर्थात् प्रतिवादी की मान्यता में अनिष्टापादन करके उसकी सदोषता के द्वारा उसके परित्याग का उपदेश देना यह अपायोदाहरण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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