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प्रागम-युग का जैन-दर्शन
४. यदि वादी देखता है कि वह प्रतिवादी को हराने में सर्वथा समर्थ है, तब वह सभापति और प्रतिवादी को अनुकूल बनाने की अपेक्षा प्रतिकूल ही बनाता हैं और प्रतिवादी को हराता है ।
५. अध्यक्ष की सेवा कर के किया जाने वाला वाद ।
६. अपने पक्षपाती सभ्यों से अध्यक्ष का मेल कराके या प्रतिवादी के प्रति अध्यक्ष को द्वेषी बनाकर किया जाने वाला वाद ।
वादी वाद प्रारम्भ होने के पहले जो प्रपञ्च करता है, उसके साथ अन्तिम दो विवादों की तुलना की जा सकती है । ऐसे प्रपञ्च का जिक्र चरक में इन शब्दों में है
"प्रागेव तावदिदं कर्तुं यतते सन्धाय परिषदाऽयनभूतमात्मनः प्रकरणमादेशयितव्यम्, यद्वा परस्य भृशदुर्ग स्यात् पक्षम्, अथवा पररय भृशं विमुखमानयेत् । परिषदि चोपसंहितायामशक्यमस्माभिवक्त म् एव ते परिषद् यथेष्टं यथाभिप्रायं वादं वादमर्यादां च स्थापयिष्यतीत्युक्त्वा तूष्णीमासीत ।" विमानस्थान प्र० ८. सू० २५ ।।
४ वाददोष-स्थानांग-सूत्र में जो दश दोष गिनाए गए हैं, उनका भी सम्बन्ध वाद-कथा से है। अतएव यहाँ उन दोपों का निर्देश करना आवश्यक है
"दसविहे दोसे पं० २० १ तज्जातदोसे, २ मतिभंगदोसे, ३ पसत्थारदोसे, ४ परिहरणदोसे ।
तत्र ज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनशक्तिसंपन्न नाकोपनेनानुपरकृत विद्येनानसूयकेनानु· नेयेनानुनयकोविदेन क्लेशक्षमेर। प्रियसंभाषणेन च सह सन्धायसंभाषा विधीयते । तथाविधेन सह कथयन् विश्रब्धः कथयेत् पृच्छेदपि च विश्रब्धः, पृच्छते चास्मै विश्रब्धाय विशवमयं ब्रूयात्, न च निग्रहमयादुहिजेत निगृह्य चैनं न हृष्येत्, न च परेषु विकत्थेत न च मोहादेकान्तग्राही स्यात, न चाविदितमर्थमनुवर्णयेत् सम्यक् चानुनयेनानुनयेन्, तत्र चावहितः स्यात् । इति अनुलोमसंभाषाविधः ।"
चरकको विगृह्य-संभाषा को स्थानांगगत प्रतिलोम से तुलना की जा सकती है। क्योंकि चरक के अनुसार विगृह्यसंभाषा अपने से हीन या अपनी बराबरी करने वाले के साथ ही करना चाहिए, श्रेष्ठ से कभी नहीं। "एते हि गुरुशिष्ययोः वादिप्रतिवादिनोर्वा वादाश्रया इव लक्ष्यन्ते"
स्थानांगसूत्रटीका० सू. ७४३ ।
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