________________
वाद-विद्या-खण्ड
५ सलक्खण, ६क्कारण, ७ हेउदोसे ८ संकामणं, ६ निग्गह, १० वत्युदोसे ||" सू० ७४३ ।
१ प्रतिवादी के कुल का निर्देश करके वाद में दूषण देना । या प्रतिवादी की प्रतिभा से क्षोभ होने के कारण वादी का चुप हो जाना तज्जातदोष है ।
२ वाद प्रसंग में प्रतिवादी या वादि का स्मृतिभ्रंश मतिभंग दोष है ।
१७६
३ वाद प्रसंग में सभ्य या सभापति पक्षपाती होकर जयदान करे या किसी को सहायता दे तो वह प्रशास्तृदोष है ।
४ सभा के नियम के विरुद्ध चलना या दूषण का परिहार जात्युत्तर से करना परिहरण दोष है ।
५ अतिव्याप्ति आदि दोष स्वलक्षण दोष हैं ।
६ युक्तिदोष कारणदोष कहलाता है ।
७ असिद्धादि हेत्वाभास हेतुदोष हैं ।
प्रतिज्ञान्तर करना संक्रमण है या प्रतिवादी के पक्ष का स्वीकार करना संक्रमण दोष है । टीकाकार ने इसका ऐसा भी अर्थ किया है कि प्रस्तुत प्रमेय की चर्चा को छोड़ अप्रस्तूत प्रमेय की चर्चा करना संक्रमण दोष है ।
छलादि के द्वारा प्रतिवादी को निगृहीत करना निग्रह दोष है । १० पक्षदोष को वस्तुदोष कहा जाता है जैसे प्रत्यक्षनिराकृत
आदि ।
इनमें से प्रायः सभी दोषों का वर्णन न्यायशास्त्र में स्पष्ट रूप से अतएव विशेष विवेचन की आवश्यकता नहीं ।
हुआ है
५ विशेष दोष - स्थानांग सूत्र में विशेष के दश प्रकार
१२
गिनाए गये
५२ “दसविधे विसेसे पं० तं वत्थू १ तज्जात दोसे २ त दोसे एगट्टितेति ३ त । कारणे ४ त पडुप्पण्णे ५, दोसे ६ निच्चे ७ हि श्रमे ८ ॥ १ ॥ प्रत्तणा ६ उबगोते १० त विसेसेति त, ते दस ।" स्थानांग सूत्र० ७४३ ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org