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वाद-विद्या-खण्ड
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३. विवाद :
स्थानांग सूत्र में विवाद के छह प्रकारों का निर्देश है
छविहे विवादे पं० २० १ प्रोसक्कतित्ता, २ उस्सक्कइत्ता, ३ अणुलोमइत्ता, ४ पडिलोमइत्ता, ५ भइत्ता, ६ मेलइत्ता।" सू० ५१२.
ये विवाद के प्रकार नहीं है, किन्तु वादी और प्रतिवादी विजय के लिए कैसी-कैसी तरकीब किया करते थे, इसी का निर्देश मात्र हैं। टीकाकार ने प्रस्तुत में विवाद का अर्थ जल्प किया है, वह ठीक ही है । जैसे कि
१. नियत समय में यदि वादी की वाद करने के लिए तैयारी न हो, तो वह बहाना बनाकर सभा स्थान से खिसक जाता है या प्रतिवादी को खिसका देता है, जिससे वाद में विलम्ब होने के कारण उसे तैयारी का समय मिल जाए ।
२. जब वादी अपने जय का अवसर देख लेता है, तब वह स्वयं उत्सुकता से बोलने लगता है या प्रतिवादी को उत्सुक बनाकर वाद का शीघ्र प्रारम्भ करा देता है ।
३. वादी सामनीति से विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बनाकर वाद का प्रारम्भ करता है या प्रतिवादी को अनुकूल बनाकर वाद प्रारम्भ कर देता है, और वाद में पड़ जाने के बाद उसे हराता है ।
चरक के इस वाक्य के साथ उपर्युक्त दोनों विवादों की तुलना करना चाहिए
"परस्य साद्गुण्यदोषबलमवेक्षितव्यम्, समवेक्ष्य च यत्रनं श्रेष्ठं मन्येत नास्य तत्र जल्पं योजयेद् अनाविष्कृतमयोगं कुर्वन् । यत्र त्वेनमवरं मन्येत. तत्रैवेनमाशु निगृह्णीयात् ।"
विमानस्थान प्र० ८. सू० २१ । __ऊपर टीकाकार के अनुसार अर्थ किया है, किन्तु चरक को देखते हुए यह अर्थ किया जा सकता है कि जिसमें अपनी अयोग्यता हो उस बात को टाल देना और जिसमें सामने वाला अयोग्य हो उसी में विवाद करना।
१° चरक में सन्धाय संभाषा वीतराग-कथा को कहा है। उसका दूसरा नाम अनुलोम संभाषा भी उसमें है । विमानस्थान प्र० ८. स० १६ । प्रस्तुत में टीकाकार के अनुसार अर्थ किया गया है किन्तु संभव है, कि अणुलोमइत्ता-इसका सम्बन्ध चरककी अणुलोमसन्धाय संभाषा के साथ हो । चरककृत व्याख्या इस प्रकार है
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