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प्रमाण-काण्ड
सृत की अपेक्षा से द्वितीय स्थानक के अनुकूल हुआ है, यह टीकाकार का स्पष्टीकरण है । किन्तु यहाँ प्रश्न है कि क्या अश्रुतनिःसृत में औत्पत्तिकी आदि के अतिरिक्त इन्द्रियजज्ञानों का समावेश साधार है ? और यह भी प्रश्न है कि आभिनिबोधिक के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ये भेद क्या प्राचीन हैं ? यानी क्या ऐसा भेद प्रथम भूमिका के समय होता था ?
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नन्दी - सूत्र जो कि मात्र ज्ञान की ही विस्तृत चर्चा करने के लिए बना है, उसमें श्रुतनिःसृतमति के ही अवग्रह आदि चार भेद हैं । और अश्रुतनिःसृत के भेदरूप से चार बुद्धियों को गिना दिया गया है । उसमें इन्द्रियज अश्रुतनिःसृत को कोई स्थान नहीं है । अतएव टीकाकार का स्पष्टीकरण कि अश्रुतनिःसृत के वे दो भेद इन्द्रियज अश्रुतनिःसृत की अपेक्षा से समझना चाहिए, नन्दी सूत्रानुकूल नहीं किन्तु कल्पित है । मतिज्ञान के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेद भी प्राचीन नहीं । दिगम्बरीय वाङ्मय में मति के ऐसे दो भेद करने की प्रथा नहीं । आवश्यक निर्युक्ति के ज्ञानवर्णन में भी मति के उन दोनों भेदों ने स्थान नहीं पाया है ।
आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में भी उन दोनों भेदों का उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि स्वयं नन्दीकार ने नन्दी में मति के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ये दो भेद तो किए हैं, तथापि मतिज्ञान को पुरानी परम्परा के अनुसार अठाईस भेदवाला ही कहा है उससे भी यही सूचित होता है, कि औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों का मति में समाविष्ट करने के लिए ही उन्होंने मति के दो भेद तो किए पर प्राचीन परंपरा में मति में उनका स्थान न होने से नन्दीकार ने उसे २८ भेदभिन्न ही कहा । अन्यथा उन चार बुद्धियों को मिलाने से तो वह ३२ भेद भिन्न ही हो जाता है ।
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२ " एवं प्रट्ठावीसह विहस्स प्राभिणिबोहियनाणस्स" इत्यादि नन्दी० ३५ । 3 स्थानांग में ये दो मेद मिलते हैं। किन्तु वह नन्दीप्रभावित हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
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