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________________ १३२ आगम-युग का जैन-दर्शन यहाँ पर एक बात और भी ध्यान देने के योग्य है । स्थानांग में श्रुतनिःसृत के भेदरूप से व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह ये दो बताये हैं । वस्तुत: वहाँ इस प्रकार कहना प्राप्त था-- श्रुतनिःसृत १ अवग्रह २ ईहा ३ अवाय ४ धारणा १ व्यंजनावग्रह २ अर्थावग्रह किन्तु स्थानांग में द्वितीय स्थानक का प्रकरण होने से दो-दो बातें गिनाना चाहिए ऐसा समझकर अवग्रह, ईहा आदि चार भेदों को छोड़कर सीधे अवग्रह के दो भेद ही गिनाये गये हैं। एक दूसरी बात की ओर भी ध्यान देना जरूरी है । अश्रुतनि:सृत के भेदरूप से भी व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह को गिना है, किन्तु वहाँ टीकाकार के मत से यह चाहिए अश्रुतनिःसृत इन्द्रियजन्य अनिन्द्रियजन्य १ अवग्रह २ ईहा ३ अवाय ४. धारणा १ औत्पत्तिकी २ वैनयिकी ३ कर्मजा ४ पारिणामिकी १ व्यंजनावग्रह २ अर्थावग्रह औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियाँ मानस होने से उनमें व्यंजनावग्रह का संभव नहीं । अतएव मूलकार का कथन इन्द्रियजन्य अश्रुतनिः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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