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१३४ आगम-युग का जैन-दर्शन
३. तृतीय भूमिका नन्दी सूत्र-गत ज्ञानचर्चा में व्यक्त होती हैवह इस प्रकार
ज्ञान
१ आभिनिबोधिक
२ श्रुत
३ अवधि
४ मनःपर्यय
५ केवल
१ प्रत्यक्ष
२ परोक्ष
१ इन्द्रियप्रत्यक्ष २ नोइन्द्रियप्रत्यक्ष १ आभिनिबोधिक २ श्रुत १ श्रोत्रेन्द्रियप्र०
१ अवधि २ चक्षुरिन्द्रियप्र० २ मनःपर्यय ३ घ्राणेन्द्रियप्र० ३ केवल ४ जिह्वेन्द्रियप्र० ५ स्पर्शेन्द्रियप्र०
१ श्रुतनिःसृत २ अश्रुतनिःसृत । । । । १ अवग्रह ईहा ३ अवाय ४ धारणा २ वैनयिकी । ४ पारिणामिकी .
१ औत्पत्तिकी ३ कर्मजा
१ व्यञ्जनावग्रह २ अर्थावग्रह
४
अंकित नकशे को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वप्रथम इसमें ज्ञानों को पांच भेद में विभक्त करके संक्षेप से उन्हीं को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त किया गया है। स्थानांग से विशेषता यह है कि इसमें इन्द्रियजन्य पांच मतिज्ञानों का स्थान प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय में है । क्योंकि जैनेतर सभी दर्शनों ने इन्द्रियजन्य ज्ञानों को परोक्ष नहीं, किन्तु प्रत्यक्ष माना है, उनको प्रत्यक्ष में स्थान देकर उस लौकिक मत का समन्वय करना भी नन्दीकार को अभिप्रेत. था। आचार्य जिनभद्र ने इस समन्वय को लक्ष्य में रखकर ही स्पष्टीकरण किया है कि
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