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१३० आगम-युग का जैन-दर्शन ... ३. तृतीय भूमिका में इन्द्रियजन्य ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष उभय में स्थान दिया गया है । इस भूमिका में लोकानुसरण स्पष्ट है ।
१. प्रथम भूमिका के अनुसार ज्ञान का वर्णन हमें भगवती-सूत्र में (८८.२.३१७) मिलता है। उसके अनुसार ज्ञानों को निम्न सूचित नकशे के अनुसार विभक्त किया गया है--
ज्ञान
१ आभिनिबोधिक २ श्रुत
३ अवधि
४ मनःपर्यय
५ केवल
१ अवग्रह २ ईहा ३ अवाय ४ धारणा
सूत्रकार ने आगे का वर्णन राजप्रश्नीय से पूर्ण कर लेने की सूचना दी है, और राजप्रश्नीय को (सूत्र १६५) देखने पर मालूम होता है, कि उसमें पूर्वोक्त नकशे में सूचित कथन के अलावा अवग्रह के दो भेदों का कथन करके शेष की पूर्ति नन्दीसूत्र से कर लेने की सूचना दी है ।
सार यही है कि शेष वर्णन नन्दी के अनुसार होते हुए भी अन्तर यह है कि इस भूमिका में नन्दीसूत्र के प्रारंभ में कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों का जिक्र नहीं है । और दूसरी बात यह भी है कि नन्दी की तरह इसमें आभिनिबोध के श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो भेदों को भी स्थान नहीं है । इसी से कहा जा सकता है, कि यह वर्णन प्राचीन भूमिका का है।
२. स्थानांग-गत ज्ञान-चर्चा द्वितीयभूमिका की प्रतिनिधि है। उसमें ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त करके उन्हीं दो में पंच ज्ञानों की योजना की गई है
इस नकशे में यह स्पष्ट है कि ज्ञान के मुख्य दो भेद किए गए हैं, पांच नहीं। पांच ज्ञानों को तो उन दो भेद-प्रत्यक्ष और परोक्ष के प्रभेद रूप से गिना है । यह स्पष्ट ही प्राथमिक भूमिका का विकास है ।
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