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________________ १२६ आगम के संकलनकर्ता के मत से भगवान् महावीर से पहले भी श्रमणों में पांच ज्ञानों की मान्यता थी । उनकी यह मान्यता निर्मूल भी नहीं । उत्तराध्ययन के २३ वें अध्ययन से स्पष्ट है, कि भगवान् महावीर ने आचार - विषयक कुछ संशोधनों के अतिरिक्त पार्श्वनाथ के तत्त्वज्ञान में विशेष संशोधन नहीं किया । यदि भगवान् महावीर ने तत्त्वज्ञान में भी कुछ नयी कल्पनाएँ की होतीं, तो उनका निरूपण भी उत्तराध्ययन में आवश्यक ही होता । आगमों में पांच ज्ञानों के भेदोपभेदों का जो वर्णन है, कर्मशास्त्र में ज्ञानावरणीय के जो भेदोपभेदों का वर्णन है, जीवमार्गणाओं में पांच ज्ञानों की जो घटना वर्णित है, तथा पूर्वगत में ज्ञानों का स्वतन्त्र निरूपण करने वाला जो ज्ञानप्रवाद - पूर्वं है, इन सबसे यही फलित होता है कि पंच- ज्ञान की चर्चा यह भगवान् महावीर ने नयी नहीं शुरू की है, किन्तु पूर्व परंपरा से जो चली आती थी, उसको ही स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाया है । प्रमाण - खण्ड इस ज्ञान चर्चा के विकासक्रम को आगम के ही आधार पर देखना हो, तो उनकी तीन भूमिकाएँ हमें स्पष्ट दीखती हैं १. प्रथम भूमिका तो वह है, जिसमें ज्ञानों को पांच भेदों में ही विभक्त किया गया है । २. द्वितीय भूमिका में ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेदों में विभक्त करके पांच ज्ञानों में से मति और श्रुत को परोक्षान्तर्गत और शेष अवधि, मन:पर्यय और केवल को प्रत्यक्ष में अन्तर्गत किया गया है । इस भूमिका में लोकानुसरण करके इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को अर्थात् इन्द्रियज-मति को प्रत्यक्ष में स्थान नहीं दिया है, किन्तु जैन सिद्धांत के अनुसार जो ज्ञान आत्ममात्रसापेक्ष हैं, उन्हें ही प्रत्यक्ष में स्थान दिया गया है । और जो ज्ञान आत्मा के अतिरिक्त अन्य साधनों की भी अपेक्षा रखते हैं, उनका समावेश परोक्ष में किया गया है । यही कारण है, कि इन्द्रियजन्य ज्ञान जिसे जैनेतर सभी दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष कहा है, प्रत्यक्षान्तर्गत नहीं माना गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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