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प्रमेय-सण्ड
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उसमें कोई तथ्य नहीं। किन्तु उस समय भी सभी ऋषियों का यह मत नहीं था। चार्वाक या भौतिकवादी तो इन्द्रियगम्य वस्तु को ही परमतत्त्वरूप से स्थापित करते रहे । इस प्रकार प्रज्ञा या इन्द्रिय के प्राधान्य को लेकर दार्शनिकों में विरोध चल रहा था। इसी विरोध का समन्वय भगवान् महावीर ने व्यावहारिक और नैश्चयिक नयों की परिकल्पना कर के किया है। अपने-अपने क्षेत्र में ये दोनों नय सत्य हैं । व्यावहारिक सभी मिथ्या ही है या नैश्चयिक हो सत्य है, ऐसा भगवान् को मान्य नहीं है । भगवान् का अभिप्राय यह है कि व्यवहार में लोक इन्द्रियों के दर्शन की प्रधानता से वस्तु के स्थूल रूप का निर्णय करते हैं, और अपना निर्बाध व्यवहार चलाते हैं अतएव वह लौकिक नय है। पर स्थूल रूप के अलावा वस्तु का सूक्ष्मरूप भी होता है, जो इन्द्रियगम्य न होकर केवल प्रज्ञागम्य है । यही प्रज्ञामार्ग नैश्चयिक नय है। इन दोनों नयों के द्वारा ही वस्तु का सम्पूर्ण दर्शन होता है।
गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा, कि भन्ते ? फाणित—प्रवाही गुड़ में कितने वर्ण गन्ध रस और स्पर्श होते हैं ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि गौतम ! मैं इस प्रश्न का उत्तर दो नयों से देता हँ--व्यावहारिकनय की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है । पर नैश्चयिक नय से वह पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्शों से युक्त है । भ्रमर के विषय में भी उनका कथन है, कि व्यावहारिक दृष्टि से भ्रमर कृष्ण है, पर वैश्चयिक दृष्टि से उसमें पाँचों वर्ण, दोनों गन्ध, पाँचों रस और आठों स्पर्श होते हैं । इसी प्रकार उन्होंने उक्त प्रसंग में अनेक विषयों को लेकर व्यवहार और निश्चय नय से उनका विश्लेषण किया है ।१०४ ।
आगे के जैनाचार्यों ने व्यवहार-निश्चय नय का तत्त्वज्ञान के अनेक विपयों में प्रयोग किया है, इतना ही नहीं, बल्कि तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त आचार के अनेक विषयों में भी इन नयों का उपयोग कर के विरोध-परिहार किया है।
जब तक उक्त सभी प्रकार के नयों को न समझा जाए तब तक अनेकान्तवाद का समर्थन होना कठिन है। अतएव भगवान् ने अपने
१०४ भगवती १८.६।
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