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आगम-युग का जैन-दर्शन
प्रज्ञापना में द्रव्य-दृष्टि से धर्मास्तिकायको एक बताया है, और उसी को प्रदेशार्थिक दृष्टि से असंख्यातगुण भी बताया गया है । तुल्यता-अतुल्यता का विचार भी प्रदेशार्थिक और द्रव्याथिक की सहायता से किया गया है । जो द्रव्य द्रव्यदृष्टि से तुल्य होते हैं वे ही प्रदेशार्थिक दृष्टि से अतुल्य हो जाते हैं । जैसे धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यदृष्टि से एक एक होने से तुल्य हैं किन्तु प्रदेशार्थिक दृष्टि से धर्म और अधर्म ही असंख्यात प्रदेशी होने से तुल्य हैं जब कि आकाश अनन्तप्रदेशी होने से अतुल्य हो जाता है । इसी प्रकार अन्य द्रव्यों में भी इन द्रव्यप्रदेश दृष्टि के अवलम्बन से तुल्यता-अतुल्यतारूप विरोधी धर्मों और विरोधी संख्याओं का समन्वय भी हो जाता है। ओघादेश-विधानादेश
तिर्यग्सामान्य और उसके विशेषों को व्यक्त करने के लिये जैनशास्त्र में क्रमशः ओघ और विधान शब्द प्रयुक्त हाए हैं। किसी वस्तु का विचार इन दो दृष्टिओं से भी किया जा सकता है । कृतयुग्मादि संख्या का विचार ओघादेश और विधानादेश इन दो दृष्टिओं से भगवान् महावीर ने किया है।०२। उसी से हमें यह सूचना मिल जाती है कि इन दो दृष्टिओं का प्रयोग कब करना चाहिए । सामान्यत: यह प्रतीत होता है कि वस्तु की संख्या तथा भेदाभेद के विचार में इन दोनों दृष्टिओं का उपयोग किया जा सकता है। व्यावहारिक और नैश्चयिक नय ।
प्राचीन काल से दार्शनिकों में यह संघर्ष चला आता है कि वस्तु का कौन-सा रूप सत्य है-जो इन्द्रियगम्य है वह या इन्द्रियातीत अर्थात् प्रज्ञागम्य है वह ? उपनिषदा के कुछ ऋषि प्रज्ञावाद का आश्रयण करके मानते रहे कि आत्माद्वैत ही परम तत्त्व है उसके अतिरिक्त दृश्यमान सब शब्दमात्र है, विकारमात्र है या नाममात्र है१०3
१०१ प्रज्ञापना-पद ३. सूत्र ५४-५६ । भगवतो. २५.४ । १०२ भगवती २५.४ ।
403 Constructive survey of Upanishadic Philosophy p. 227. छान्दोग्योपनिषद् ६.१.४ ।
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