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आगम-युग का जैन दर्शन
मन्तव्यों के समर्थन में नाना नयों का प्रयोग करके शिष्यों को अनेकान्तवाद हृदयंगम करा दिया । ये ही नय अनेकान्तवादरूपी महाप्रासाद की आधार - शिला हैं, यह कहा जाए तो अनुचित न होगा ।
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नाम - स्थापना- द्रव्य एवं भाव :
जैन सूत्रों की व्याख्या - विधि अनुयोगद्वार - सूत्र में बताई गई है । यह विधि कितनी प्राचीन है, इसके विषय में निश्चित कुछ कहा नहीं जा सकता । किन्तु अनुयोगद्वार के परिशीलनकर्ता को इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि व्याख्या - विधि का अनुयोगद्वारगतरूप स्थिर होने में पर्याप्त समय व्यतीत हुआ होगा । यह विधि स्वयं भगवान् महावीर की देन है या पूर्ववर्ती ? इस विषय में इतना ही निश्चय रूप से कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती न हो तब भी उनके समय में उस विधि का एक निश्चित रूप बन गया था । अनुयोग या व्याख्या के द्वारों के वर्णन में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों का वर्णन आता है । यद्यपि नयों की तरह निक्षेप भी अनेक हैं, तथापि अधिकांश में उक्त चार निक्षेपों को ही प्राधान्य दिया गया है
" जत्थ य जं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थ वि य न जाणिज्जा चउक्कं निक्खिवे तत्थ ।। "
अनुयोगद्वार अतएव इन्हीं चार निक्षेपों का उपदेश भगवान् महावीर ने दिया होगा, यह प्रतीत होता है । अनुयोगद्वार - सूत्र में तो निक्षेपों के विषय में पर्याप्त विवेचन है, किन्तु वह गणधरकृत नहीं समझा जाता । गणधरकृत अंगों में से स्थानांग- सूत्र में 'सर्व' के जो प्रकार गिनाए हैं, वे सूचित करते हैं कि निक्षेपों का उपदेश स्वयं भगवान् महावीर ने दिया होगा
" चत्तारि सव्वा पत्ता - नामसव्वए ठवणसव्वए श्राएससव्वए निरवसेस सव्वए " स्थानांग २६६
प्रस्तुत सूत्र में सर्व के निक्षेप बताए गए हैं । उनमें नाम और स्थापना निक्षेपों को तो शब्दतः तथा द्रव्य और भाव को अर्थत: बताया है । द्रव्य का अर्थ उपचार या अप्रधान होता है, और आदेश का अर्थ
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