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________________ प्रमेय-खण्ड १०३. का तात्पर्य वस्तु की अज्ञेयता-अनिर्णेयता एवं अवाच्यता में जान पड़ता है । यदि विरोधी मतों का समन्वय एकान्त दृष्टि से किया जाए, तब तो पक्ष-विपक्ष-समन्वय का चक्र अनिवार्य है। इसी चक्र को भेदने का मार्ग भगवान् महावीर ने बताया है। उन के सामने पक्ष-विपक्ष-समन्वय और समन्वय का भी विपक्ष उपस्थित था। यदि वे ऐसा समन्वय करते जो फिर एक पक्ष का रूप ले ले, तब तो पक्ष-विपक्ष-समन्वय के चक्र की गति नहीं रुकती। इसी से उन्होंने समन्वय का एक नया मार्ग लिया, जिससे वह समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये विपक्ष को अवकाश दे न सके । उनके समन्वय की विशेषता यह है कि वह समन्वय स्वतन्त्र पक्ष न होकर सभी विरोधी पक्षों का यथायोग्य संमेलन है। उन्होंने प्रत्येक पक्ष के बलाबल की ओर दृष्टि दी है। यदि वे केवल दौर्बल्य की ओर ध्यान दे कर के समन्वय करते, तब सभी पक्षों का सुमेल होकर एकत्र संमेलन न होता, किन्तु ऐसा समन्वय उपस्थित हो जाता, जो किसी एक विपक्ष के उत्थान को अवकाश देता । भगवान् महावीर ऐसे विपक्ष का उत्थान नहीं चाहते थे । अतएव उन्होंने प्रत्येक पक्ष को सच्चाई पर भी ध्यान दिया, और सभी पक्षों को वस्तु के दर्शन में यथायोग्य स्थान दिया। जितने भी अबाधित विरोधी पक्ष थे, उन सभी को सच बताया अर्थात् • सम्पूर्ण सत्य का दर्शन तो उन सभी विरोधों के मिलने से ही हो सकता है, पारस्परिक निरास के द्वारा नहीं। इस बात की प्रतीति नयवाद के द्वारा कराई। सभी पक्ष, सभी मत, पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। किसी एक प्रकार का इतना प्राधान्य नहीं है कि वही सच हो और दूसरा नहीं। सभी पक्ष अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य हैं, और इन्हीं सब दृष्टियों के यथायोग्य संगम से वस्तु के स्वरूप का आभास होता है । यह नयवाद इतना व्यापक है कि इसमें एक ही वस्तु को जानने के सभी संभवित मार्ग पृथक्-पृथक् नय रूप से स्थान प्राप्त कर लेते हैं। वे नय तब कहलाते हैं, जब कि अपनी-अपनी मर्यादा में रहें, अपने. पक्ष का स्पष्टीकरण करें और दूसरे पक्ष का मार्ग अवरुद्ध न करें । परन्तु यदि वे ऐसा नहीं करते, तो नय न कहे जाकर दुर्नय बन जाते हैं । इस अवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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