________________
१०२ आगम-युग का जन-वर्शन
समझता है, तब स्याद्वादी भगवान् महावीर प्रत्येक भंग का स्वीकार करना क्यों आवश्यक है, यह बताकर विरोधी भंगों के स्वीकार के लिए नयवाद एवं अपेक्षावाद का समर्थन करते हैं । यह तो संभव है कि स्याद्वाद के भंगों की योजना में संजय के भंग-जाल से भगवान् महावीर ने लाभ उठाया हो, किन्तु उन्होंने अपना स्वातन्त्र्य भी बताया है, यह स्पष्ट ही है । अर्थात् दोनों का दर्शन दो विरोधी दिशा में प्रवाहित हुआ है ।
ऋग्वेद से भगवान् बुद्ध पर्यन्त जो विचार-धारा प्रवाहित हुई है, उसका विश्लेषण किया जाए, तो प्रतीत होता है कि प्रथम एक पक्ष उपस्थित हुआ जैसे सत् या असत् का । उसके विरोध में विपक्ष उत्थित हुआ असत् या सत् का । तब किसी ने इन दो विरोधी भावनाओं को समन्वित करने की दृष्टि से कह दिया कि तत्त्व न सत् कहा जा सकता है और न असत्वह तो अवक्तव्य है । और किसी दूसरे ने दो विरोधी पक्षों को मिलाकर कह दिया कि वह सदसत् है । वस्तुतः विचार-धारा के उपर्युक्त पक्ष, विपक्ष और समन्वय ये तीन क्रमिक सोपान हैं । किन्तु समन्वय - पर्यन्त आ जाने के बाद फिर से समन्वय को ही एक पक्ष बनाकर विचार-धारा आगे चलती है, जिससे समन्वय का भी एक विपक्ष उपस्थित होता है । और फिर नये पक्ष और विपक्ष के समन्वय की आवश्यकता होती है । यही कारण है कि जब वस्तु की अवक्तव्यता में सद् और असत् का समन्वय हुआ, तब वह भी एक एकान्त पक्ष बन गया । संसार की गतिविधि ही कुछ ऐसा है, मनुष्य का मन ही कुछ ऐसा है कि उसे एकान्त सह्य नहीं । अतएव वस्तु की ऐकान्तिक अवक्तव्यता के विरुद्ध भी एक विपक्ष उत्थित हुआ कि वस्तु ऐकान्तिक अवक्तव्य नहीं, उसका वर्णन भी शक्य है । इसी प्रकार समन्वयवादी ने जब वस्तु को सदसत् कहा, तब उसका वह समन्वय भी एक पक्ष बन गया और स्वभावतः उसके विरोध में विपक्ष का उत्थान हुआ । अतएव किसी ने कहा- एक ही वस्तु सदसत् कैसे हो सकती है, उसमें विरोध है । जहाँ विरोध होता है, वहाँ संशय उपस्थित होता है । जिस विषय में संशय हो, वहाँ उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता । अतएव मानना यह चाहिए कि वस्तु का सम्यग्ज्ञान नहीं । हम उसे ऐसा भी नहीं कह सकते, वैसा भी नहीं कह सकते । इस संशय या अज्ञानवाद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org