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प्रागम-युग का जैन-दर्शन
___"सव्वं प्रत्थीति खो ब्राह्मण अयं एको अन्तो।.....'सम्वं नत्थीति खो ब्राह्मण अयं दुतियो अन्तो । एते ते ब्राह्मण उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो धम्म देसेतिअविज्जापच्चया संखारा......."
संयुत्तनिकाय XII 17 । अन्यत्र भगवान् बुद्ध ने उक्त दोनों अन्तों को लोकायत बताया है-वही XII 8.
इस विषय में प्रथम तो यह बताना आवश्यक है कि भगवान् महावीर ने सवं अस्ति' का आग्रह नहीं रखा है किन्तु जो 'अस्ति' है उसे ही उन्होंने 'अस्ति' कहा है और जो नास्ति है उसे ही 'नास्ति' कहा है । 'सर्वं नास्ति' का सिद्धान्त उनको मान्य नहीं। इस बात का स्पष्टीकरण गौतम गणधर ने भगवान् महावीर के उपदेशानुसार अन्य तीथिकों के प्रश्नों के उत्तर देते समय किया है
___ "नोखलु वयं देवारणुप्पिया, अस्थिभावं नस्थित्ति वदामो, नत्थिभावं अथित्ति बदामो । अम्हे णं देवाणुप्पिया ! सव्वं अस्थिभावं अत्थीति वदामो, सव्वं नथिभावं नत्थीति बदामो।"
भगवती ७.१०.३०४. भगवान् महावीर ने अस्तित्व और नास्तित्व दोनों का परिणमन स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, किन्तु अपनी आत्मा में अस्तित्व
और नास्तित्व दोनों के स्वीकारपूर्वक दोनों के परिणमन को भी स्वीकार किया है । इस से अस्ति और नास्ति के अनेकान्तवाद की सूचना उन्होंने की है यह स्पष्ट है।।
“से नूणं भंते, अत्थितं अस्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ ?" ''हंता गोयमा !........ परिणमइ।" "जण्णं भंते, अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ नत्थित्तं नत्थित्ते परिण मइ तं कि पयोगसा वीससा ?" “गोयमा ! पयोगसा वि तं वीससावि तं ।” "जहा ते मंते, अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ तहा ते नस्थित नत्थित्ते परिणमइ? जहा ते नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ तहा ते अत्थित्त अस्थित्ते परिणमइ ?" "हंता गोयमा ! जहा मे अत्थितं........"
भगवती १.३.३३. जो वस्तु स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'अस्ति' है वही परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से 'नास्ति' है । जिस रूप से वह 'अस्ति' है, उसी रूप से 'नास्ति' नहीं किन्तु 'अस्ति' ही है । और जिस रूप से वह 'नास्ति' है उस रूप से 'अस्ति' नहीं, किन्तु 'नास्ति' ही है।
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