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प्रमेय-खण्ड
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"एस णं भंते, पोग्गले पडुप्पन्न सासयं समयं भवतीति वत्तव्वं सिया ?" "हंता गोयमा !" "एस गंभंते ! पोग्गले प्रणागयमणंतं सासयं समयं भविस्सतीति वत्तव्वं सिया ?" "हंता गोयमा !"
___ भगवती. १४. ४. ५१० तात्पर्य इतना ही है कि तीनों काल में ऐसा कोई समय नहीं . जब पुद्गल का सातत्य न हो। इस प्रकार पुद्गल द्रव्य की नित्यता का द्रव्यदृष्टि से प्रतिपादन कर के उसकी अनित्यता कैसे है इसका भी प्रतिपादन भगवान् महावीर ने किया है--
"एस णं भंते पोग्गले तीतमणतं सासयं समयं लुक्खी, समयं अलुक्खी, समय लुक्खी वा अलुक्खी वा? पुटिव च णं कारणणं अणेगवन्नं प्रणेगरूवं परिणाम परिणमति, अह से परिणामे निज्जन्ने भवति तो पच्छा एगवन्न एगल्ये सिया?"
"हंता गोयमा !..... एगरूवे सिया।" भगवती १४.४.५१०.
अर्थात् ऐसा संभव है कि अतीत काल में किसी एक समय में जो पुद्गल परमाणु रूक्ष हो. वही अन्य समय में अरूक्ष हो । पुद्गल स्कंध भी ऐसा हो सकता है। इसके अलावा वह एक देश से रूक्ष और दूसरे देश से अरूक्ष भी एक ही समय में हो सकता है । यह भी संभव है कि स्वभाव से या अन्य के प्रयोग के द्वारा किसी पुद्गल में अनेकवर्णपरिणाम हो जाएँ और वैसा परिणाम नष्ट होकर बाद में एकवर्णपरिणाम भी उसमें हो जाए । इस प्रकार पर्यायों के परिवर्तन के कारण पुद्गल की अनित्यता भी सिद्ध होती है और अनित्यता के होते हुए भी उसकी नित्यता में कोई बाधा नहीं आती। इस बात को भी तीनों काल में पुद्गल की सत्ता बता कर भगवान् महावीर ने स्पष्ट किया हैभगवती १४.४,५१० । अस्ति-नास्ति का अनेकान्त :
‘सर्व अस्ति' यह एक अन्त है, 'सर्वं नास्ति' यह दूसरा अन्त है। भगवान् बुद्ध ने इन दोनों अन्तों का अस्वीकार कर के मध्यममार्ग का अवलंबन करके प्रतीत्यसमुत्पाद का उपदेश दिया है, कि अविद्या होने से संस्कार है इत्यादि
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