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________________ प्रमेय-खण्ड ७७ पर्याय अर्थात् विशेष समझना चाहिए । सामान्य-द्रव्य दो प्रकार का है-तिर्यग् और ऊर्ध्वता । जब कालकृत नाना अवस्थाओं में किसी द्रव्य विशेप का एकत्व या अन्वय या अविच्छेद या ध्र वत्व विवक्षित हो, तब उस एक अन्वित अविच्छिन्न ध्र व या शाश्वत अंग को ऊवता सामान्यरूप द्रव्य कहा जाता है। एक ही काल में स्थिति नाना देश में वर्तमान नाना द्रव्यों में या द्रव्यविशेषों में जो समानता अनुभूत होती है वही तिर्यग्सामान्य द्रव्य है। जब यह कहा जाता है, कि जीव भी द्रव्य है, धर्मास्तिकाय भी द्रव्य है, अधर्मास्तिकाय भी द्रव्य है इत्यादि ; या यह कहा जाता है कि द्रव्य दो प्रकार का है-जीव और अजीव । या यों कहा जाता है कि द्रव्य छह प्रकार का है--धर्मास्तिकाय आदि ; तब इन सभी वाक्यों में द्रव्य का अर्थ तिर्यग्सामान्य है। और जब यह कहा जाता है, कि जीव दो प्रकार का है। संसारी और सिद्ध ; संसारी जीव के पाँच भेद६२ हैंएकेन्द्रियादि; पुद्गल चार प्रकार का है-स्कंघ, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश और परमाणु इत्यादि, तब इन वाक्यों में जीव और पुद्गल शब्द तिर्यग्सामान्यरूप द्रव्य के बोधक हैं।। परन्तु जब यह कहा जाता है, कि जीव द्रव्याथिक से शाश्वत है और भावार्थिक से अशाश्वत है—तब जीव द्रव्य का मतलब ऊर्ध्वतासामान्य से है। इसी प्रकार जब यह कहा जाता है कि अव्यूच्छित्तिनय की अपेक्षा से, नारक' शाश्वत है, तब अव्युच्छित्तिनयका विषय जीव भी ऊर्ध्वतासामान्य ही अभिप्रेत है। इसी प्रकार एक जीव की जब गति आगति का विचार होता है अर्थात् जीव मरकर कहाँ जाता है" या जन्म के समय वह कहाँ से आता है इत्यादि विचार-प्रसंग में सामान्य जीव ६१ भगवती १.१.१७. १.८.७२. ६२ प्रज्ञापनापद १. स्थानांग सू० ४५८. ६३ भगवती ७.२.२७३. ६४ भगवती ७.३.२७६. ६५ भगवती शतक. २४. A Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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