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________________ प्रमेय-खण्ड ७५ की अक्रिया का उपदेश देता हूँ इसलिए मैं अक्रियावादी हूँ और कुशल संस्कार की क्रिया मुझे पसंद है और मैं उसका उपदेश देता हूँ इसीलिए मैं क्रियावादी भी हूँ। इसी समन्वय प्रकृति का प्रदर्शन अन्यत्र दार्शनिक क्षेत्र में भी यदि भगवान् बुद्ध ने किया होता तो उनकी प्रतिभा और प्रज्ञा ने दार्शनिकों के सामने एक नया मार्ग उपस्थित किया होता । किन्तु यह कार्य भगवान् महावीर की शान्त और स्थिर प्रकृति से ही होने वाला था इसलिए भगवान् बुद्ध ने आर्य चतुःसत्य के उपदेश में ही कृतकृत्यता का अनुभव किया । तब भगवान् महावीर ने जो बुद्ध से न हो सका, उसे कर के दिखाया और वे अनेकान्तवाद के प्रज्ञापक हुए । अब तक मुख्य रूप से भगवान् बुद्ध के अव्याकृत प्रश्नों को लेकर जैनागमाश्रित अनेकान्तवाद की चर्चा की गई है। आगे अन्य प्रश्नों के सम्बन्ध में अनेकान्तवाद के विस्तार की चर्चा करना इष्ट है । परंतु उस चर्चा के प्रारंभ करने के पहले पूर्वोक्त 'दुःख स्वकृत है या नहीं' इत्यादि प्रश्न का समाधान महावीर ने क्या दिया है, उसे देख लेना उचित है । भगवान् बुद्ध ने तो अपनी प्रकृति के अनुसार उन सभी प्रश्नों का उतर निषेधात्मक दिया है, क्योंकि ऐसा न कहते तो उनको उच्छेद वाद और शाश्वतवाद की आपत्ति का भय था। किन्तु भगवान् का मार्ग तो शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के समन्वय का मार्ग है अतएव उन प्रश्नों का समाधान विधिरूप से करने में उनको कोई भय नहीं था। उनसे प्रश्न किया गया कि क्या कर्म का कर्ता स्वयं है, अन्य है या उभय है ? इसके उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा कि कर्म का कर्ता आत्मा स्वयं है, पर नहीं है और न स्वपरोभय"" । जिसने कर्म किया है, वही उसका भोक्ता है यह मानने में ऐकान्तिक शाश्वतवाद की आपत्ति भगवान् महावीर के मत में नहीं आती ; क्यों कि जिस अवस्था में किया था, उससे दूसरी ही अवस्था में कर्म का फल भोगा जाता है। तथा भोक्तृत्व " विनयपिटक महावग्ग VI. 31. और अंगुत्तरनिकाय Part II. p. 179. ५१० ७. ५७ भगवती १.६.५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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