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आगम-युग का जैन-दर्शन
किन्तु आत्मद्रव्य और उसका क्षेत्र भी मर्यादित है इस बात को स्वीकार कर के उन्होंने उसे सांत कहते हुए भी काल की दृष्टि से अनन्त भी कहा है । और एक दूसरी दृष्टि से भी उन्होंने उसे अनन्त कहा है-जीव के ज्ञान-पर्यायों का कोई अन्त नहीं, उसके दर्शन और चरित्र पर्यायों का भी कोई अन्त नहीं। क्योंकि प्रत्येक क्षण में इन पर्यायों का नया-नया आविर्भाव होता रहता है और पूर्व पर्याय नष्ट होते रहते हैं। इस भाव-पर्याय दृष्टि से भी जीव अनन्त है । भगवान बुद्ध का अनेकान्तवाद :
इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् बुद्ध के सभी अव्याकृत प्रश्नों का व्याकरण भगवान् महावीर ने स्पष्टरूप से विधिमार्ग को स्वीकार कर के किया है और अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की है । इसका मूल आधार यही है कि एक ही व्यक्ति में अपेक्षा के भेद से अनेक संभवित विरोधी धर्मों की घटना करना । मनुष्य स्वभाव समन्वयशील तो है ही किन्तु सदा सर्वदा कई कारणों से उस स्वभाव का आविर्भाव ठीक रूप से हो नहीं पाता । इसीलिए समन्वय के स्थान में दार्शनिकों में विवाद देखा जाता है । और जहाँ दूसरों को स्पष्ट रूप से समन्वय की संभावना दीखती है, वहाँ भी अपने-अपने पूर्वग्रहों के कारण दार्शनिकों को विरोध की गंध आती है । भगवान् बुद्ध को उक्त प्रश्नों का उत्तर अव्याकृत देना पड़ा उनका कारण यही है कि उनको आध्यात्मिक उन्नति में इन जटिल प्रश्नों की चर्चा निरर्थक प्रतीत हुई । अतएव इन प्रश्नों को सुलझाने का उन्होंने कोई व्यवस्थित प्रयत्न नहीं किया। किन्तु इसका मतलब यह कभी नहीं कि उनके स्वभाव में समन्वय का तत्त्व बिलकुल नहीं था। उनकी समन्वय-शीलता सिंह सेनापति के साथ हुए संवाद से स्पष्ट है। भगवान् बुद्ध को अनात्मवादी होने के कारण कुछ लोग अक्रियावादी कहते थे । अतएव सिंह सेनापति ने भगवान् बुद्ध से पूछा कि आपको कुछ, लोग अक्रियावादी कहते हैं, तो क्या यह ठीक है ? इसके उत्तर में उन्होंने जो कुछ कहा उसी में उनकी समन्वयशीलता और अनेकान्तवादिता स्पष्ट होती है। उत्तर में उन्होंने कहा कि सच है, मैं अकुशल संस्कार
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