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प्रमेय-खण्ड ७३
विषय में उनका मन्तव्य स्पष्ट नहीं है । यदि काल की अपेक्षा से सान्तता- निरन्तता विचारणीय हो, तो तब तो उनका अव्याकृत मत पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है । परन्तु द्रव्य की दृष्टि से या देश की - क्षेत्र की दृष्टि से जीव की सान्तता - निरन्तता के विषय में उनके विचार जानने का कोई साधन नहीं है । जब कि भगवान् महावीर ने जीव की सान्तता निरन्तता का भी विचार स्पष्ट रूप से किया है, क्योंकि उनके मत से जीव एक स्वतन्त्र तत्त्व रूप से सिद्ध है । इसी से कालकृत नित्यानित्यता की तरह द्रव्य क्षेत्र-भाव की अपेक्षा से उसकी सान्तता - अनन्तता भी उन को अभिमत है । स्कंदक परिव्राजक का मनोगत प्रश्न जीव की सान्तता - अनन्तता के विषय में था, उसका निराकरण भगवान् महावीर ने इन शब्दों में किया है
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"जे वि य खंदया, जाव सअन्ते जीवे अनंते जीवे तस्सवि य णं एयमट्ठेएवं खलु जाव दव्वओ णं एगे जीवे सनंते, खेत्तओ णं जीवे असंखेज्जपए सिए असंखेज्ज
सोगाढे अत्थि पुण से अंते, कालओ णं जीवे न कयावि न आसि जाव निच्चे नत्थि पुण से अंते, भावओ णं जीवे अणंता णाणपज्जवा अनंता दंसणपज्जवा अनंता चरितपज्जवा अनंता अगुरुलहुयपज्जवा नत्थि पुण से अंते ।" भगवती २.१.१० ।
सारांश यह है कि एक जीव व्यक्ति
द्रव्य से सान्त |
क्षेत्र से सान्त |
काल से अनन्त और
भाव से अनन्त है ।
इस प्रकार जीव सान्त भी है और अनन्त भी है. यह भगवान् महावीर का मन्तव्य है । इसमें काल की दृष्टि से और पर्यायों की अपेक्षा से उसका कोई अन्त नहीं । किन्तु वह द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से सान्त है । यह कह करके भगवान् महावीर ने आत्मा के "अणोरणीयान् महतो महीयान् " इस औपनिषद मत का निराकरण किया है । क्षेत्र की दृष्टि से आत्मा की व्यापकता यह भगवान् का मन्तव्य नहीं । और एक आत्मद्रव्य ही सब कुछ है, यह भी भगवान् महावीर को मान्य नहीं ।
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