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________________ जैन-आगमसंबंधित संक्षिप्त वक्तव्य तंदुलवेयालिय, चंदावेज्झय, गणिविजा, मरणविभत्ति-मरणसमाहि, आउरपच्चक्खाण, महापचक्खाण, ये सात नाम और कालिक सूत्रविभागमें इसिभासियाई, दीवसागरपण्णत्ति ये दो नाम, इस प्रकार ९ नाम पाये जाते हैं। फिर भी चउसरण, आजका आउरपञ्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, संथारय और आराहणापडागाइन प्रकीर्णकोंको छोड़कर दूसरे प्रकीर्णक बहुत प्राचीन हैं, जिनका उल्लेख चूर्णिकारोंने अपनी चूर्णियोंमें किया है। तंदुलवेयालियका उल्लेख अगस्त्यसिंहस्थविर कृत दसवेयालियसूत्रकी चूर्णि (पृ० ३ पं० १२) में है। जैसे कर्मप्रकृति शास्त्रका कम्मपगडिसंगहणी नाम कहा जाता है, इसी प्रकार दीवसागरपण्णत्तिका दीवसागरपण्णत्तिसंगहणी यह नाम संभावित है। श्वेतांबर मूर्तिपूजक वर्ग तित्थोगालिपइण्णयको प्रकीर्णकोंकी गिनतीमें शामिल करता है, किन्तु इस प्रकीर्णकमें ऐसी बहुतसी बातें हैं जो श्वेतांबरोंको स्वप्नमें भी मान्य नहीं हैं और अनुभवसे देखा जाय तो उसमें आगमोंके नष्ट होनेका जो क्रम दिया है वह संगत भी नहीं है। अंगविज्जापइण्णय एक फलादेशका ९००० श्लोक परिमित महत्त्वका ग्रंथ है। इसमें ग्रह-नक्षत्रादि या रेखादि लक्षणोंके आधार पर फलादेशका विचार नहीं किया गया है, किन्तु मानवकी अनेकविध चेष्टाओं एवं क्रियाओंके आधार पर फलादेश दिया गया है। एक तरह माना जाय तो मानसशास्त्र एवं अंगशास्त्रको लक्ष्यमें रख कर इस ग्रंथकी रचना की गई है। भारतीय वाङ्मयमें इस विषयका ऐसा एवं इतना महाकाय ग्रंथ दूसरा कोई भी उपलब्ध नहीं हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001044
Book TitlePainnay suttai Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Amrutlal Bhojak
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1984
Total Pages689
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_chatusharan, agam_aaturpratyakhyan, agam_mahapratyakhyan, agam_bhaktaparigna, agam_tandulvaicharik, agam_sanstarak, agam_gacchachar, & agam_chandra
File Size11 MB
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