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जैन-आगमसंबंधित संक्षिप्त वक्तव्य
चक्खाण, भत्तपरिण्णा और आराधनापताकाके रचयिता वीरभद्रगणि हैं। ये आराधनापताकाकी प्रशस्तिके 'विक्कमनिवकालाओ अत्तरिमे समासहस्सम्मि' और 'अत्तरिमे समासहस्सम्मि' पाठभेदके अनुसार विक्रम संवत् १००८ या १०७८ में हुए हैं। बृहट्टिप्पनिकाकारने आराधनापताकाका रचनाकाल 'आराधनापताका १०७८ वर्षे वीरभद्राचार्यकृता' अर्थात् सं० १०७८ कहा है। 'आराधनापताका में ग्रंथकारने 'आराहणाविहिं पुण भत्तपरिणाइ वणिमो पुट्विं' (गा० ५१) अर्थात् 'आराधनाविधिका वर्णन हमने पहले भक्तपरिज्ञामें कर दिया है। ऐसा लिखा है। इस निर्देशसे यह ग्रंथ इन्हीका रचा हुआ सिद्ध होता है। आजके चउसरण एवं आउरपच्चक्खाणके रचना-क्रमको देखनेसे ये प्रकीर्णक भी इन्हीं के रचे हुए प्रतीत होते हैं। वीरभद्रकी यह आराधनापताका 'यापनीय आचार्य प्रणीत आराधना भगवती' का अनुकरण करके रची गई है। नंदीसूत्र में 'आउरपच्चक्खाण' का जो नाम
आता है वह आजके आउरपच्चक्खाणसे अलग है। सामान्यतः वीरभद्राचार्यको भगवान् महावीरके शिष्य मानते हैं परन्तु उपरोक्त प्रमाण को पढ़नेके बाद यह मान्यता भ्रान्त सिद्ध होती है। इस प्रकार दूसरे आगम भी अलग अलग समयमें रचे हुए हैं। हो सकता है कि रायपसेणीयसूत्र भगवान् महावीरके समय में ही रचा गया हो।
नंदी-पाक्षिक सूत्रोंके अनुसार आगमोंके चौरासी नामों व आजके प्रचलित आगमोंके नामोंसे विद्वान परिचित हैं ही अतः उनका उल्लेख न करके मैं मुद्देकी बात कह देता हूं कि-आज अंगसूत्रोंमें जो प्रश्नव्याकरणसूत्र है वह मौलिक नहीं किन्तु तत्स्थानापन्न कोई नया ही सूत्र है। इस बातका पता नंदीसूत्र व समवायांगके आगम-परिचयसे लगता है। आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरिने देवेन्द्र-नरकेन्द्र प्रकरणकी अपनी वृत्तिमें राजप्रश्नीय सूत्रका नाम 'राजप्रसेनजित्' लिखा है जो नंदी-पाक्षिक सूत्रमें दीये हुए 'रायप्पसेणइयं' इस प्राकृत नामसे संगति बैठानेके लिए है। वैसे राजप्रश्नीयमें प्रदेशिराजाका चरित्र है। इस आगमको पढ़ते हुए पेतवत्थु नामक बौद्धग्रंथका स्मरण हो जाता है।
प्रकीर्णक-सामान्यतया प्रकीर्णक दस माने जाते हैं किन्तु इनकी कोई निश्चित नामावली न होनेके कारण ये नाम कई प्रकारसे गिनाये जाते हैं। इन सब प्रकारों में से संग्रह किया जाय तो कुल बाईस नाम प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं
१. चउसरण, २. आउरपञ्चक्खाण, ३. भत्तपरिण्णा, ४. संथारय, ५. तंदुलवेयालिय, ६. चंदावेज्झय, ७. देविदत्थय, ८. गणिविजा, ९. महापच्चक्खाण, १०. वीरत्थय, ११. इसिभासियाई, १२. अजीवकप्प, १३. गच्छाचार, १४. मरणसमाधि, १५. तित्थोगालि, १६. आराहणापडागा, १७. दीवसागरपण्णत्ति, १८. जोइसकरंडय, १९. अंगविजा, २०. सिद्धपाहुड, २१. सारावली, २२. जीवविभत्ति । इन प्रकीर्णकोंके नामोंमेंसे नंदी-पाक्षिकसूत्रमें उत्कालिक सूत्रविभागमें देविदत्थय,
गावेj -"नंदीसूत्रके कर्ता पं० श्रीकल्याणविजयजीने निश्चित किया है तदनुसार देवर्द्धिक्षमाश्रमण है।" परंतु श्री मिनहासमणिभत्तत नहीसूत्रनी यूहिण भने सायार्यश्री હરિભદ્રસૂરિકૃત નંદીસૂત્રની વૃત્તિમાં નંદીસૂત્રના ર્તા શ્રી દેવવાચક છે' આવો સ્પષ્ટ નિર્દેશ જોયા પછી અહીં “જ્ઞાનાંજલિ' ગ્રંથમાં પૂજ્યપાદ આગમપ્રભાકરજીએ “નંદીસૂત્રના ર્તા શ્રી દેવવાચક છે” એમ સુધારીને સ્પષ્ટ નિર્દેશ કર્યો છે. આ માટે જુઓ પ્રાકૃત ટેક સોસાયટી દ્વારા પ્રકાશિત ચૂર્ણિસહિત નંઢીરાં ગ્રંથમાં પૃ. ૧૩ પં. ૮, તથા પ્રા. ટે. સો. દ્વારા પ્રકાશિત શ્રી હરિભદ્રસૂરિકૃત વૃત્તિ સહિત નત્ત્વિસૂત્રમ્ ગ્રંથમાં ૫૦ ૧૫ પં. ૧૧, પૃ. ૧૭ પં. ૨૬ અને પૃ૦ ૩૩ ૫૦ ૧૦.
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