SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ પ્રસ્તાવના 33 श्री शीलांकाचार्य ने सूत्रकृततांग की अपनी वृत्ति में इस प्रकार लिखा हः "इह च प्रायः सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यन्ते, न च टीकासंवादी एकोऽप्यादर्शः समुपलब्धः, अत एकमादर्शमङ्गीकृत्यास्माभिर्विवरणं क्रियत इति, एतदवगम्य सूत्रविसंवाददर्शनाच्चित्तव्यामोहो न विधेय इति" [मुद्रित पत्र ३३६-१] अर्थात् चर्णिसंमत मूलसूत्र के साथ तुलना की जाय ऐसी एक भी मूलसूत्र की हस्तप्रति आचार्य शीलांक को नहीं मिली थी. श्री अभयदेवाचार्य ने भी स्थानांग, समवायांग व प्रश्नव्याकरण इन तीनों अंग आगमों की वृत्ति के प्रारम्भ एवं अन्त में इसी आशय का उल्लेख किया है जो क्रमशः इस प्रकार है: १. वाचनानामनेकत्वात् , पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगांभीर्याद् मतभेदाच्च कुत्रचित् ॥२॥ २. यस्य ग्रंथवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च, चत्वारिंशदहो। चतुर्भिरधिका मानं पदानामभूत् । तस्योच्चश्वुलुकाकृति विदधतः कालादिदोषात् तथा, दुलेखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः १ ॥२॥ ३. अज्ञा वयं शास्त्रमिदं गभीरं, प्रायोऽस्य कटानिच पुस्तकानि । सूत्रं व्यवस्थाप्यमतो विमृश्य, व्याख्यानकल्पादित एव नैव ॥२॥ ऊपर उदाहरण के रूप में श्री शीलांकाचार्य व श्री अभयदेवाचार्य के जो उल्लेख दिये हैं उनसे प्रतीत होता है कि वलभी में स्थविर आर्य देवर्द्धिगणि, गंधर्ववादिवेताल शान्तिसूरि आदि के प्रयत्न से जो जैन आगमों का संकलन एवं व्यवस्थापन हुआ और उन्हें पुस्तकारूढ किया गया, यह कार्य जैन स्थविर श्रमणों की जैनआगमादि को ग्रंथारूढ करने की अल्परुचि के कारण बहुत संक्षिप्त रूप में ही हुआ होगा तथा निकट भविष्य में हुए वलभी के भंग के साथ ही वह व्यवस्थित किया हुआ आगमों का लिखित छोटा-सा ग्रंथ-संग्रह नष्ट हो गया होगा. परिणाम यह हुआ कि आखिर जो स्थविर आर्य स्कन्दिल एवं स्थविर आर्य नागार्जुन के समय की हस्तप्रतियां होंगी, उन्हीं की शरण व्याख्याकारों को लेनी पडी होगी. यही कारण है कि प्राचीन चूर्णियां एवं ब्याख्याग्रंथों में सैकडों पाठभेद उल्लिखित पाये जाते हैं जिनका उदाहरण के रूप में मैं यहां संक्षेप में उल्लेख करता हूं. आचारांगसूत्र की चूर्णि में चूर्णिकार ने नागार्जुनीय वाचना के उल्लेख के अलावा 'पढिजह य' ऐसा लिखकर उन्नीस स्थानों पर पाठभेद का उल्लेख किया है. आचार्य श्रीशीलांक ने भी अपनी वृत्ति में उपलब्ध हस्तप्रतियों के अनुसार कितने ही सूत्रपाठभेद दिये हैं. इसी प्रकार सूत्रकृतांगचूर्णि में भी नागार्जुनीय वाचनाभेद के अलावा 'पठ्यते च, पठ्यते चान्यथा सद्भिः, अथवा, अथवा इह तु, मूलपाठस्तु, पाठविशेषस्तु, अन्यथा पाठस्तु, अयमपरकल्पः, पाठान्तरम्' आदि वाक्यों का उल्लेख कर केवल प्रथमश्रतस्कन्ध की चर्णि में ही लगभग सवासौ जगह जिन्हें वास्तविक पाठभेद माने जाय ऐसे उल्लेखों की गाथा की गाथाएं, पूर्वाध के पूर्वार्ध व चरण के चरण पाये जाते हैं. द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पाठभेद तो इसमें शामिल ही नहीं किये गये हैं. आचार्य शीलांक ने भी बहुत से पाठभेद दिये हैं, फिर भी चूर्णिकार की अपेक्षा ये बहुत कम हैं. यहां पर एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि खुद आचार्य शीलांक ने स्वीकार किया है कि 'हमें चूर्णिकारस्वीकृत आदर्श मिला ही नहीं.' यही कारण है कि उनकी टीका में चूर्णि की अपेक्षा मूल सूत्रपाठ एवं व्याख्या में बहुत अन्तर पड़ गया है. इसके साथ मेरा यह कथन है कि आज हमारे सामने जो प्राचीन सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001023
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1978
Total Pages475
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_sutrakritang
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy