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________________ १०० एक अनुशीलन (१०) सुगंधित हवा का मंद-मंद रूप से प्रवाहित होना। (११) निर्धूम अग्नि की जाला दक्षिणावर्त प्रज्वलित होना। (१२) नन्दीउर, पूर्णकलश, शंख, पटह, छत्र, चामर, ध्वजा-पताका का साक्षात्कार होना। " प्रकीर्णक गणिविद्या१८० में लि वा है कि शकुन मुहूर्त से भी प्रबल होता है। जंबूक, चास (न.ल. कंठ) मयूर, भारद्वाज, नकुल यदि दक्षिण दिशा में दिखलाई दें तो सर्वसंपत्ति प्राप्त होती है। दसवें अध्ययन में चन्द्र के उदाहरण से प्रतिपादित किया है कि जैसे कृष्णपक्ष में चन्द्र की चार चंद्रिका मंद और मंदतर होती है और शुक्लपक्ष में वही चंद्रिका अभिवृद्धि को प्राप्त होती है वैसे ही चन्द्र के सदृश कर्मों की अधिकता से आत्मा की ज्योति मंद होती है और कर्म की ज्यों यो न्यूनता होती है त्यों-त्यों उसकी ज्योति अधिकाधिक जगमगाने लगती है। रूपक बहुत ही शानदार है। बारहवें अध्ययन में कलुषित जल को शुद्ध बनाने की पद्धति पर प्रकाश डाला है। गटर के गंदे पानी को साफ करने की यह पद्धति आधुनिक युग की फिल्टर पद्धति से प्रायः मिलती है। आज से २५०० वर्ष पूर्व भी यह पद्धति ज्ञात थी। संसार का कोई भी पदार्थ एकान्त रूप से न शुभ है और न अशुभ ही है। प्रत्येक पदार्थ शुभ से अशुभ रूप में परिवर्तित हो सकता है। अतः किसी से घृणा नहीं करनी चाहिए। यहाँ पर ध्यान देने योग्य है भगवान् ऋषभ देव और महावीर के अतिरिक्त बाईस तीर्थकरों ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। यह चातुर्याम धर्म श्रमणों के लिए था, किन्तु गृहस्थों के लिए तो पंच अणुव्रत ही थे। वहाँ पर चार अणुव्रत का उल्लेख नहीं है, किन्तु पाँच अणुव्रत का उल्लेख है।८२ इस कथानक का संबंध चंपानगरी से है। तेरहवें अध्ययन में दर्दुर का उदाहरण है। इस अध्ययन में पुष्करिणी-वापिका का सुन्दर वर्णन है। वह वापिका चतुष्कोण थी और उस में विविध प्रकार के कमल खिल रहे थे। उस पुष्करिणी के चारों ओर उपवन भी थे। उन उपवनां में आधुनिक युग के 'पार्क' के सदृश स्थान-स्थान पर विविध प्रकार की कलाकृतियाँ निर्मित की गई थीं। वहाँ पर सैर सपाटे के लिए जो लोग आते थे उनके लिए नाटक दिखाने की भी व्यवस्था की गई थी। चिकित्सालय का भी निर्माण कराया था। वहाँ पर कुशल चिकित्सक नियुक्त थे। उन्हें वेतन भी मिलता था। उस युग में सोलह महारोग प्रचलित थे-(१) श्वास (२) कास-खांसी (३) ज्वर (४) दाह-जलन (५) कुक्षिशूल (६) भंगदर (७) अर्श-बवासीर (८) अजीर्ण (९) नेत्रशूल (१०) मस्तकशूल (११) भोजन विषयक अरुचि (१२) नेत्र वेदना (१३) कर्ण वेदना (१४) कंडू-खाज (१५) दकोदर -जलोदर (१६) कोढ़। आवारांग१८३ में १६ महारोगों के नाम दूसरे प्रकार से मिलते हैं। विपाक'८१, निशीय भाष्य८५ आदि में भी १६ प्रकार की व्याधियों के उल्लेख हैं, पर नामों में भिन्नता है। चरकसंहिता१८६ में आठ महारोगों का वर्णन है। १७८. पद्मचरित-२, ८४, ८५/२, ९१, ९४, ९५, ९६ ॥ १७९. बृहत्कल्पलघुभाष्य-८२. ८४॥ १८०. गह दिगाउ मुहुत्ता मुहुत्ताउ सउणावली।-प्रकीर्णक गणिविद्या श्लो० ८ ॥ १८१. ओघनिक्ति भाष्य १०८॥ १८२. “ विचितं केवलेपन्नत्तं चाउज्जामं धम्म परिकहेइ, तमाइक्खई जहा जीवा बझंति जाव पंच अणुव्वयाई।" ॥१८३. आचारांग-६-१-१७३॥ १८४. विपाक-१, पृ. ७॥ १८५. निशीथ भाष्य--११/३६४६॥ १८६. वातव्याधिरपस्मारी, कुष्ठी शोफी तथोदरी। गुल्मी च मधुमेही च, राजयक्ष्मी च यो नरः। -चरकसंहिता इन्द्रिय स्थान-९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001021
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1990
Total Pages737
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Story, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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