SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक अनुशीलन १०१ इस प्रकार इस अध्ययन में सांस्कृतिक दृष्टि से वपुल सामग्री है जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। चौदहवें अध्ययन में तेतलीपुत्र का वर्णन है। पन्द्रहवें अध्ययन में नंदीफल का उदाहरण है। नंदीफल विषैले फल थे जो देखने में सुन्दर, मधुर और सुवासित, पर उनकी छाया भी बहुत जहरीली थी। धन्ना सार्थवाह ने अपने सभी व्यक्तियों को सूचित किया कि वे नंदीफल से बचें, पर जिन्होंने सूचना की अवहेलना की वे अपने जीवन से हाथ धो बैठे। धन्य सार्थवाह की तरह तीर्थकर है । विषय भोगरूपी नंदीफल हैं जो तीर्थंकरों की आज्ञा की अवहेलना कर उन्हें ग्रहण करते हैं, वे जन्म मरण को प्राप्त करते हैं किन्तु मुक्ति को वरण नहीं कर सकते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में धन्ना सार्थवाह अपने साथ उन सभी व्यक्तियों को ले जाते हैं जिनकी आर्थिक स्थिति नाजुक थी, जो स्वयं व्यापार आदि हेतु जा नहीं सकते थे। इसमें पारस्परिक सहयोग की भावना प्रमुख है। सार्थसमूह में अनेक मतों के माननेवाले परिव्राजक भी थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय विविध प्रकार के परिव्राजक अपने मत का प्रचार करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान भी जाते थे। उनके नाम इस प्रकार हैं (१) चरक जो जूथ बन्द घूमते हुए भिक्षा ग्रहण करते थे और खाते हुए चलते थे। व्याख्या प्रज्ञप्ति में १८७ चरक परिव्राजक धायी हुई भिक्षा ग्रहण करते और लंगोटी लगाते थे। प्रज्ञापना मे८८ चरक आदि परिव्राजकों को कपि ठ का पुत्र कहा है। आचारांग चूर्णि में लिखा१८९ है-सांख्य चरक के भक्त थे। वे परिव्राजक प्रातःकाल उठकर स्कन्द आदि देवताओं के गृह का परिमार्जन करते, देवताओं पर उपलेपन करते और उनके सामने धूप आदि करते थे। बृहदारण्यक उपनिषद १९० में भी चरक का उल्लेख मिलता है। पं. बेचरदासजी दोशी ने चरक को त्रिदण्डी कच्छनीधारी या कौपीनधारी तापस माना है। (२) चीरिक–पथ में पड़े हुए वस्त्रों को धारण करने वाला या वस्त्रमय उपकरण रखने वाला। (३) धर्मखंडिक-चमड़े के वस्त्र और उपकरण रखने वाला। (४) भिच्छंड-(भिक्षोड) केवल भिक्षा से ही जो जीवन निर्वाह करते हैं, किन्तु गोदुग्ध आदि रस ग्रहण नहीं करते । किनने ही स्थलों पर बुद्धानुयायी को भिक्षुण्ड कहा है। (५) पण्डुरंग-जो शरीर पर भस्म लगाते हैं। निशीथ चूर्गि १९१ में गोशालक के शिष्यों को पंडुरभिक्खु लिखा है। अनुयोगद्वार चूर्णि१९२ में पंडुरंग को ससरकत्र भिक्खुओं का पर्यायवाची माना है। शरीर पर श्वेत भस्म लगाने के कारण इन्हें पंडुरंग या पंडरभिक्षु कहा जाता था। उद्योतनसरि की दृष्टि से गाय के दही, दूध, गोवर, घी आदि को मांस की भाँति समझकर नहीं खाना पंडरभिक्षुओं का धर्म था। १८७. व्याख्याप्रज्ञप्ति १-२-पृ. ४९॥ १८८. प्रज्ञापना २०. बृ. १२१४ ॥ १८९. (क) आचारांग चूणि ८-पृ. २६५. (ख) आवश्यक मलयगिरि वृत्ति भा. १, पृ. ८७॥ १९०. बृहद्. उप० ॥ १९१. निशीथचूर्णि १३, ४४२०. (ख) २, १०८५॥ १९२. अनुयोगद्वार चूर्णि. पृ. १२ (1) जर्नल आफ द ओरियण्टल इन्सटीट्यूट पूना २६, नं २ पृ. ९२०, (II) कुवलयमाला २०६/११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001021
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1990
Total Pages737
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Story, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy