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________________ एक अनुशीलन (५१) अश्मक्रिया (५२) मृक्रिया (५३) दारुक्रिया (५४) वेणुक्रिया (५५) चर्मक्रिया (५६) अंबरक्रिया (५७) अदृश्यकरण (५८) दंतिकरण (५९) मृगयाविधि (६०) वाणिज्य (६१) पाशुपात्य (६२) कृषि (६३) आसवकर्म (६४) मेषादि युद्धकारक कौशल। शुक्राचार्य ने नीतिसार ग्रन्थ १३ में प्रकारान्तर से चौसठ कलाएँ बताई हैं। प्राचीन काल में कलाओं के व्यापक अध्ययन के लिए विभिन्न चिन्तकों ने विभिन्न कलाओं पर स्वतन्त्र ग्रन्थों का निर्माण किया था। अत्यधिक विस्तार से उन कलाओं के संबंध में विश्लेषण भी किया था। जैसे, भरत का 'नाट्य शास्त्र', वात्स्यायन का 'कामसूत्र' चरक और सुश्रुत की संहिताएँ, नल का 'पाक दर्पण', पालकाप्य का 'हस्त्यायुर्वेद', नीलकण्ठ की 'मातंगलीला', श्रीकुमार का 'शिल्परत्न', रूद्रदेव का 'शयनिक शास्त्र' आदि । लिपि और भाषा : कलाओं के अध्ययन व अध्यापन के साथ ही उस युग में प्रत्येक व्यक्ति को और विशेषकर समृद्ध परिवार में जन्मे हुए व्यक्तियों को बहुभाषाविद् होना भी अनिवार्य था। संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के अतिरिक्त अट्ठारह देशी भाषाओं का परिज्ञान आवश्यक था। प्रस्तुत सूत्र में मेघकुमार के वर्णन में 'अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए' यह मूल पाठ है। पर वे अट्ठारह भाषाएँ कौनसी थीं इसका उल्लेख मूल पाठ में नहीं है। औपपातिक आदि में भी इसी तरह का पाठ मिलता है, किन्तु वहाँ पर भी अट्ठारह देशी भाषाओं का निर्देश नहीं है, नवांगी टीकाकार आचार्य अभय देव ने१५ प्रस्तुत पाठ पर विवेचन करते हुए अष्टादश लिपियों का उल्लेख किया है, पर अट्ठारह देशी भाषाओं का नहीं। अभयदेव ने विभिन्न देशों में प्रचलित अट्ठारह लिपियों में विशारद लिखा है। समवायांग, प्रज्ञापना, विशेषावश्यकभाष्य की टीका और कल्पसूत्रटीका में अट्ठारह लिपियों के नाम मिलते हैं पर सभी नामों में यत्किंचित् भिन्नता है। हम यहाँ तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले जिज्ञासुओं के लिए उनके नाम प्रस्तुत कर रहे हैं। समवायांग१६ के अनुसार (१) ब्राह्मी (२) यावनी (३) दोषउपरिका (४) खरोष्टिका (५) खरशाविका (पुष्करसारि) (६) पाहारातिगा (७) उच्चत्तरिका (८) अक्षरपृष्टिका (९) भोगवतिका (१०) वैणकिया (११) निण्हविका (१२) अंकलिपि (१३) गणितलिपि (१४) गंधर्वलिपि (भूतलिपि) (१५) आदर्श लिपि (१६) माहेश्वरी (१७) दामिली लिपि (द्रावडी) (१८) पोलिन्दी लिपि प्रज्ञापना'१७ के अनुसार (१) ब्राह्मी (२) यावनी (३) दोसापुरिया (४) खरोष्ठी (५) पुक्खरासारिया (६) भोगवइया (भोगवती) (७) पहराइया (८) अन्तक्खरिया (९) अक्खरपुट्ठिया (१०) वैनयिकी (११) अंकलिपि (१२) निह्नविकी (१३) गणित लिपि (१४) गंधर्व लिपि (१५) आयंस लिपि (१६) माहेश्वरी (१७) दोमिली लिप (१८) पौलिन्दी - विशेषावश्यक टीका के अनुसार (१) हंस (२) भूत (३) यक्षी (४) राक्षसी (५) उड्डी (६) यवनी (७) तुरुक्को (८) कोरी (९) द्रविडी (१०) सिंघवीय (११) मालविनी (१२) नडि (१३) नागरी (१४) लाट (१५) पारसी (१६) अनिमित्ती (१७) चाणक्की (१८) मूलदेवी । कल्पसूत्र टीका के अनुसार (१) लाटी (२) चौडी (३) डाहली (४) कानडी (५) गूर्जरी (६) सौरहठी (७) मरहठी ११३. नीतिसार ४-३ ॥ ११५. ज्ञातासूत्र १ टीका ॥ ११६. समवायोग, समवाय १८ ॥ ११७. प्रज्ञापना १।३७ ॥ ११८. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ४६४ की टीका ॥ ११९. कल्पसूत्र टीका ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001021
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1990
Total Pages737
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Story, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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