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एक अनुशीलन (८) खुरासानी (९) कोंकणी (१०) मागधी (११) सिंहली (१२) हाडी (१३) कीडी (१४) हम्मीरी (१५) परसी (१६) मसी (१७) मालवी (१८) महायोधी चीनी भाषा में "फा युअन् चु लिन्" नामक बौद्ध विश्वकोश में तथा " ललित-विस्तार"१२° के अनुसार (१) ब्राह्मी (२) खरोष्ठी (३) पुष्करसारी (४) अंग लिपि (५) बंग लिपि (६) मगध लिपि (७) मांगल्य लिपि (८) मनुष्य लिपि (९) अंगुलीय लिपि (१०) शकारि लिपि (११) ब्रह्मवल्ली लिपि (१२) द्राविड लिपि (१३) कनारि लिपि (१४) दक्षिण लिपि (१५) उग्र लिपि (१६) संख्या लिपि (१७) अनुलोम लिपि (१८) ऊर्ध्वधनुलिपि (१९) दरद लिपि (२०) खास्य लिपि (२१) चीन लिपि (२२) हूण लिपि (२३) मध्याक्षरविस्तर लिपि (२४) पुष्प लिपि (२५) देव लिपि (२६) नाग लिपि (२७) यक्ष लिपि (२८) गंधर्व लिपि (२९) किंकर लिपि (३०) महोरग लिपि (३१) असुर लिपि (३२) गरुड लिपि (३३) मृगचक्र लिपि (३४) चक्र लिपि (३५) वायुमरु लिपि (३६) भौवदेव लिपि (३७) अंतरिक्ष देव लिपि (३८) उत्तरकुरुद्वीपलिपि (३९) अपदगौडादि लिपि (४०) पूर्वविदेह लिपि (४१) उत्क्षेप लिपि (४२) निक्षेप लिपि (४३) विक्षेप लिपि (४४) प्रक्षेप लिपि (४५) सागर लिपि (४६) वज्र लिपि (४७) लेख प्रतिलेख लिपि (४८) अनुद्रत लिपि (४९) शास्त्रावर्त लिपि (५०) गणावर्त लिपि (५१) उत्क्षेपावर्त लिपि (५२) विक्षेगवर्त लिपि (५३) पादलिखित लिपि (५४) द्विरुत्तरपदसंधिलिखित लिपि (५५) दशोत्तरपदसंधि लेखित लिपि (५६) अध्याहारिणी लिपि (५७) सर्वकत्संग्रहिणी लिपि (५८) विद्यानुलोम लिपि (५९) विमिश्रित लिपि (६०) ऋषितपस्तप्त लिपि (६१) धरणीप्रोक्षण लिपि (६२) सर्वोषधनियंद लिपि (६३) सर्वसार संग्रहण लिपि (६४) सर्वभूतरुद्रग्रहणी लिपि ।
इन लि पेयों के सम्बन्ध में आगमप्रभाकर पुण्यविजय१२१ जी म० का यह अभिमत था कि इनमें अनेकों नाम कल्पित हैं। इन लिपियों के सम्बन्ध में अभी तक कोई प्राचीन शिलालेख भी उपलब्ध नहीं हुआ है, इससे भी यह प्रतीत होता है कि ये सभी लिपियाँ प्राचीन समय में ही लुप्त हो गई। या इन लिपियों का स्थान ब्राह्मी लिपि ने ले लिया होगा। मेरी दृष्टि से अट्ठारह देशीय भाषा और लिपियाँ ये दोनों पृथक् पृथक् होनी चाहिए।
भरत'२२ के नाट्यशास्त्र में सात भाषाओं का उल्लेख मिलता है-मागधी, आवन्ती, प्राच्या, शौरसेनी, बहिहका, दक्षिणात्य और अर्धमागधी। जिनदास गणि महत्तर१२३ ने निशीथ चूर्णि में मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्नाटक, द्रविड, गौड, विदर्भ इन आठ देशों की भाषाओं को देशी भाषा कहा है। 'बृहत्कल्प भाष्य' में आचार्य संघदास गणि'२४ ने भी इन्ही भाषाओं का उल्लेख किया है। 'कुवलयमाला'२५ में उद्योतन सूरि ने गोल्ल, मध्यप्रदेश, मगध, अन्तर्वेदि, कीर, ढक्क, सिन्धु, मरू गुर्जर, लाट, मालवा, कर्नाटक, ताइय (ताजिक), कोशल, मरहट्ट और आन्ध्र इन सोलह भाषाओं का उल्लेख किया है। साथ ही सोलह गाथाओं में उन भाषाओं के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। डा. ए. मास्टर'२६ का सुझाव है कि इन सोलह भाषाओं में औड़ और द्राविडी भाषाएँ मिला देने से अट्ठारह भाषाए, जो देशी हैं, हो जाती हैं।
१२०. ललितविस्तरा, अध्याय १०॥ १२१. 'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला' पृ. ५॥ १२२. भरत ३-१७-४८ ॥ १२३. निशीथ चूर्णि॥ १२४. बृहत्कल्पभाव्य-१, १२३१ की वृत्ति ॥ १२५. 'कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन' पृ. २५३-५८॥ १२६. A. Master-B. SOAS XIII-2, 1950. PP.41315॥
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