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________________ धर्मामृत ( सागार) यावज्जीवमिति त्यक्त्वा महापापानि शुद्धधीः। जिनधर्मश्रुतेर्योग्यः स्यात् कृतोपनयो द्विजः ॥१९॥ महापापानि-महत् विपुलमनन्तसंसारकारणं पापं येभ्यस्तानि मद्यपानादीनि प्राक् प्रबन्धेनोक्तानि । उक्तं चार्षे 'मधुमांसपरित्यागाः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात्सार्वकालिकम् ।।' [ महापु. ३८।१२२ ] जिनधर्मश्रुतेः-वीतरागसर्वज्ञोपदिष्टस्य धर्मस्य श्रुतिः श्रवणं शास्त्रं वा उपासकाध्ययनादि तस्याः । यदाह 'अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्त्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ।' [ पुरुषार्थ. ७४ ] इस प्रकार जीवनपर्यन्तके लिए अनन्त संसारके कारण महापापको जन्म देनेवाले मद्य आदि जो पहले विस्तारसे कहे गये हैं उनको छोड़कर सम्यक्त्वसे विशुद्ध बुद्धिवाला द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य उपनयन संस्कार हो जानेपर वीतराग सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट धर्मको अथवा उपासकाध्ययन आदि शास्त्रको सुननेका अधिकारी होता है ।।१९।। विशेषार्थ-ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यको द्विज कहते हैं। महापुराणमें (३८।४८) कहा है कि जो दो बार उत्पन्न हुआ हो एक बार गर्भसे और दूसरी बार क्रियासे उसे द्विज कहते हैं । परन्तु जो क्रिया और मन्त्रसे रहित है वह केवल नामसे द्विज है। यहाँ द्विजको ही जैन धर्मके सुननेका अधिकारी कहा है वह भी जब वह सम्यक्त्व पूर्वक जीवन पर्यन्तके लिए स्कारसे सम्पन्न हो। जैनधर्मके सुननेके अधिकारी की चर्चा पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें मिलती है । किन्तु उसमें न तो द्विज और न उपनयन संस्कारका विधान है। जो शुद्धधी आठ अनिष्ट मद्यपानादिका त्याग कर देता है वह जिनधर्म देशनाका पात्र होता है । आचार्य अमृतचन्द्र और पं. आशाधरके समयमें तीन सौ वर्षों का अन्तर है इन वर्षों में धर्मको लेकर वर्ण आदिकी बात आ गयी। अन्यथा भगवान्के समवसरणमें तो पशु तक जाते थे और धर्म सुनते थे । आचार्य सोमदेवने जिनदीक्षाके योग्य तीन ही वर्णों को बतलाया है । अपने नीतिवाक्यामृतमें भी उन्होंने कहा है कि जैसे सूर्य सबके लिए वैसे ही धर्म भी सबके लिए है केवल विशेष अनुष्ठान में नियम है। यह विशेष अनुष्ठान जिनदीक्षा आदि है । अतः विशेष अनुष्ठानमें नियम हो सकता है। धर्मश्रवणका भी अधिकार यदि सबको न हो तो बिना धर्म सुने कोई कैसे सम्यग्दृष्टि बनकर आठ मूल गुणोंको धारण करेगा। पं. आशाधरजीने अवश्य ही यह कथन पुरुषार्थसिद्धयुपायके आधारपर किया है। 'शुद्धधी' शब्द दोनोंमें है । इस शब्दके अर्थको लेकर भी विवाद खड़ा कर दिया है। किन्हीं विद्वानोंका कहना है कि शुद्धधीका अर्थ निर्मल बुद्धि है और आठ महापापोंको छोड़नेसे १. 'त्रयो वर्णाः द्विजातयः।-नीतिवा., ७।६। २. 'द्विजातो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातो गर्भतश्च यः । क्रियामन्त्रविहीनस्तु केवलं नामधारकः ॥' । -महापु. ३ ।४८ ३. 'दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाः'।-सो. उपा. ४. 'आदित्यावलोकनवत् धर्मः खलु सर्वसाधारणो विशेषानुष्ठाने तु नियमः।' -नीतिवा. ७।१४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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