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एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) 'अर्थादी प्रचुरप्रपञ्चवचनैर्ये वञ्चयन्तेऽपरान्नूनं ते नरकं व्रजन्ति पुरतः पापव्रजादन्यतः। प्राणाः प्राणिषु तन्निबन्धनतया तिष्ठन्ति नष्टे धने,
यावान् दुःखभरो नरेन मरणे तावानिह प्रायशः ॥' [पद्म. पञ्च. ११२७-२८] ॥१७॥ अथ प्रतिपाद्यानरोधाद्धर्माचार्याणां सूत्राविरोधेन देशनानानात्वोपलम्भाद् भनयन्तरेणाष्टमूलगुणानुद्देष्टुमाह
मद्य-पल-मधु-निशासन-पञ्चफलोविरति-पञ्चकाप्तनुती।
जीवदया जलगालनमिति च कचिदष्ट मूलगुणाः ॥१८॥ पञ्चफली–पञ्चानां फलानां समाहारः पिप्पलादिफलपञ्चकमित्यर्थः । तद्विरतिरेक एवात्र मूलगुणः ।। आप्तनूति:-त्रिकालदेववन्दना । क्वचित्-क्वापि शास्त्रे । यद् वृद्धाः पठन्ति
'मद्योदुम्बरपञ्चकामिषमधुत्यागाः कृपा प्राणिनां, नक्तं भुक्तिविमुक्तिराप्तविनुतिस्तोयं सुवस्त्रनुतम् । एतेऽष्टौ प्रगुणा गुणा गणधरैरागारिणां कीर्तिताः,
एकेनाप्यमुना विना यदि भवेद् भूतो न गेहाश्रमी ।' ॥१८॥ अथ प्रकृतमुपसंहरन् सार्वकालिक-सम्यक्त्व-शुद्धिपूर्वकमद्यादिविरतिकृतां कृतोपनीतीनां ब्राह्मणक्षत्रिय- १५ विशां जिनधर्मश्रुत्यधिकारितामाविष्कर्तुमाहइसी लोक और परलोकमें भी अनेक बार मारता है। जो जिसके द्वारा ठगा जाता है वह उसे इस लोक और परलोकमें भी अनेक बार ठगता है। यह बात स्त्री और बालकोंसे भी तथा शास्त्रमें भी सुनी जाती है। फिर भी लोग धोखा देही और हिंसाको छोड़ते हुए क्यों संकोच करते हैं ? जो मनुष्य अनेक प्रपंचपूर्ण वचनोंसे दूसरोंके धनको ठगते हैं वे निश्चय ही उस पापसमूहसे नरकमें जाते हैं। इसका कारण है कि धन मनुष्योंका प्राण है क्योंकि धनसे ही प्राण रहते हैं । अतः धन नष्ट होनेपर मनुष्यको जितना दुःख होता है उतना प्रायः मरते समय भी नहीं होता ।।१७॥ ____ शिष्यों के अनुरोधसे धर्माचार्य आगमसे अविरुद्ध अनेक प्रकारसे उपदेश देते हुए पाये जाते हैं । अतः अन्य प्रकारसे आठ मूल गुण कहते हैं
मद्य का त्याग, मांसका त्याग, मधुका त्याग, रात्रि भोजनका त्याग, पाँच उदुम्बर फलोंका त्याग, त्रिकाल देववन्दना, जीव दया और छना पानीका उपयोग, ये आठ मूलगुण किसी शास्त्र में कहे हैं ॥१८॥
विशेषार्थ-इन अष्ट मूल गुणों में एक पाक्षिक श्रावकके योग्य सभी आवश्यक आचार आ जाता है । मद्य, मांस, मधु, रात्रिभोजन और पाँच प्रकारके उदुम्बर फलोंके त्यागके साथ प्रतिदिन जिनदर्शन, पानी छानकर उपयोगमें लाना तथा जीवोंपर दया, ये आठ बातें ऐसी हैं जिन्हें श्रावक सरलतासे पाल सकता है। इसीलिए जिन धर्माचार्यने आजके श्रावकको लक्ष्य करके ये अष्टमूल गुण कहे हैं, उन्होंने यह भी कहा है कि इनमें से एकके भी बिना गृहस्थ कहलानेका पात्र नहीं है ॥१८॥
अब प्रकृत अष्टमूलगुणोंकी चर्चाका उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार सार्वकालिक सम्यक्त्वकी शुद्धिपूर्वक आठ मूलगुणोंका पालन करनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंको, जिनका उपनयन संस्कार हो गया है, जिनधर्मके सुननेका अधिकारी बतलाते हैं
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