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________________ धर्मामृत ( सागार) आस्तामेतद्यदिह जननी वल्लभां मन्यमाना निन्द्याश्चेष्टा विदधति जना निस्त्रपाः पीतमद्याः । तत्राधिक्यं पथि नियतिता यत्किरत्सारमेयाद्वक्त्रे मूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणाः पिवन्ति ॥' [ पद्म. पञ्च. ११२१-२२ ] 'बीभत्स्यं प्राणिघातोद्भवमशुचि कृमिस्थानमश्लाघ्यमूलं, हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्प्रष्टुमालोकितुं च । तन्मासं भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं यस्य साक्षात्पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्का गतिर्वा न विद्मः ।।' 'गतो ज्ञातिः कश्चिद्बहिरपि न यद्येति सहसा, शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जनः । परेषामुत्कृत्य प्रकटितमुखं खादति पलं, कले रे निविण्णा वयमिह भवच्चित्रचरितैः ।।' [ पद्म. पञ्च. १११९-२० ] 'यो येनैव हतः स तं हि बहुशो हन्त्येव यैर्वश्चितो, नूनं वञ्चयते स तानपि भृशं जन्मान्तरेऽप्यत्र च । स्त्रीबालादिजनादपि स्फुटमिदं शास्त्रादपि श्रूयते, नित्यं वञ्चनहिंसनोज्झनविधी लोकः कुतो मुह्यति ॥' नरकमें जो आगमें तपी लोहमयी नारियोंके शरीरके आलिंगनसे होनेवाला है, आश्चर्य है कि यह उसे भी नहीं देखता।' _ 'जो पुरुष कामसे पीड़ित होकर परस्त्रीके पास जाता है उसने जगत्में अपयशकी डुग्गी पीट दी है, अपने कुलके नामपर कालिमा पोत दी है, चारित्रको जलांजलि भेंट कर दी है, गुणोंके समूहरूप उद्यानमें आग लगा दी है, समस्त आपत्तियोंको निमन्त्रण दे दिया है और मोक्ष नगरके द्वारपर मजबूत कपाट लगा दिये हैं।' ____ इस तरह परस्त्रीव्यसनकी बुराइयाँ बताकर आचार्य मद्यपान व्यसनकी बुराइयाँ कहते हैं-'जो मद्य इस जन्ममें समस्त पुरुषार्थोंका नष्ट करनेवाला है तथा आगे उत्तरोत्तर अधिक दुःखका कारण है यदि बुद्धिमान् उस मद्यपानको भी नहीं छोड़ सकते तो फिर इस लोकमें धर्मके लिए अपना हितकारक अन्य कौन काम कर सकते हैं। .मद्यपायी निर्लज्ज मनुष्य माताको प्रिया मानकर जो निन्द्य चेष्टाएँ करते हैं वे तो दूर रहे। उससे भी अधिक खेदकी बात यह है कि मार्गमें मदहोश होकर कुत्तेके पेशाबको 'बड़ा मधुर है' कहते हुए पी जाते हैं।' मद्यपानके पश्चात् मांसव्यसनकी निन्दा करते हैं-'मांस घिनावना होता है, प्राणियोंके घातसे उत्पन्न होता है, अतएव अपवित्र, कृमियोंका उत्पत्तिस्थान और निन्दनीय होता है । बड़े पुरुष तो उसे हाथसे स्पर्श नहीं कर सकते और आँखोंसे देख नहीं सकते। 'वह मांस खाने योग्य है' ऐसा कहना भी सज्जनोंके लिए गर्हित है। उस मांसको जो साक्षात् पाप है, खानेवाले पुरुषकी लोकमें क्या गति होगी, हम नहीं जानते । 'यदि कोई अपना सम्बन्धी बाहर जाकर जल्दी नहीं लौटता तो मनुष्य सिर पीट-पीटकर रोता है। वही मनुष्य दूसरे प्राणियोंको मारकर उनका मांस मुँह फैलाकर खाता है । हे कलिकाल ! तुम्हारे इन विचित्र चरितोंको देखकर हमे तुमसे विरक्ति होती है।' जो जिसके द्वारा मारा जाता है वह उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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