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________________ किञ्च, अपि च एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय ) ' तनुरपि यदि लग्ना कीटिका स्याच्छरीरे भवति तरलचक्षुर्व्याकुलो यः स लोकः । कथमिह मृगयाप्तानन्दमुत्खातशस्त्रो मृगमकृतविकारं ज्ञातदुःखोऽपि हन्ति ॥ [ पद्म पञ्च. १।२६ ] 'चिन्ता-व्याकुलता - भयारतिमतिभ्रंशातिदाहभ्रमक्षुत्तृष्णाहति-रोग-दुःख मरणान्येतान्यहो आसताम् । यान्यत्रैव पराङ्गनाहितमतेस्तद् भूरिदुःखं चिरंश्वभ्रे भावि यदग्निदीपितवपुर्लोहाङ्गनालिङ्गनात् ॥ [ पद्म पञ्च. १२९ ] Jain Education International 'दत्तस्तेन जगत्य कीर्तिपटहो गोत्रे मषिकूर्चकश्चारित्रस्य जलाञ्जलिर्गुणगणारामस्य दावानलः । सङ्केतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढः कामार्तस्त्यजति प्रभोदयभिदाशस्त्रों परस्त्रीं नयन् ॥' [ 'सकल - पुरुषधर्मं - भ्रंशकार्यंत्र जन्मन्यधिकमधिकमग्रे यत्परं दुःखहेतुः । तदपि यदि न मद्यं त्यज्यते बुद्धिमद्भिः स्वहितमिह किमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम् ॥ ] नहीं हैं जो मांस खाती हैं, मदिरा पीती हैं, झूठ बोलती हैं, धनके लिए ही प्रेम करती हैं, धन और प्रतिष्ठाकी हानि करती हैं, रात-दिन नीच पुरुषोंकी भी लार पीती हैं।' 'जो धोबीकी कपड़े पछाड़ने की शिलाके समान हैं, जिनका आचरण कुत्तेके खप्पर समान हैं उन वेश्याओंका यदि संसर्ग किया तो परलोककी तो बात ही व्यर्थ है ।' 'जो धनकी आशासे अपना मनोहर शरीर जन्मान्धको दुर्मुखको, जरासे जीर्ण अंगवालेको, ग्रामीणको, अकुलीनको तथा गलित कुष्टसे प्रसित जनों को भी देती हैं, विवेकरूपी कल्पलताको काटनेके लिए शस्त्रके समान उन वेश्याओं से कौन अनुराग करेगा ?” ६१ इस प्रकार वेश्याव्यसनकी बुराइयाँ बताकर आचार्य पद्मनन्दि शिकार खेलनेवालों की निन्दा करते हैं - ' एकमात्र दुःखदायक शरीर ही जिसका धन है, जिसका कोई भाई आदि सम्बन्धी भी नहीं है, वनमें रहती है, जो स्वभाव से ही डरपोक है, दाँतों में तिनका लिये हैं, किसीका अपराध भी नहीं करती, मांस भोजनके लोभसे जिस शिकार में ऐसी हरिणी भी मारी जाती है उस शिकारके प्रेमी मनुष्य इस लोक और परलोकमें जो पाप करते हैं उसे कौन कहने में समर्थ है ।' जो लोग शरीर में जरा-सी चींटीके भी काटनेपर व्याकुल होकर आँख में पानी ले आते हैं वे ही दुःखको जानते हुए भी शिकार के आनन्द में चूर होकर निरपराध मृगका कैसे शस्त्र उठाकर घात करते हैं ? शिकार के पश्चात् परस्त्री व्यसनकी निन्दा करते हुए कहते हैं- 'परस्त्री गामीको इसी भव में जो चिन्ता, व्याकुलता, भय, अरति, बुद्धिनाश, अतिसन्ताप, भ्रम, भूख-प्यास, आघात, रोग, दुःख, मरण आदि प्राप्त होते हैं वे तो रहे किन्तु उससे महान् दुःख चिर काल तक For Private & Personal Use Only ३ ६ १२ १५ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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