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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय) ६५ कृतोपनय:-कृतो यथाविध्युपकल्पित उपनयो मौञ्जीबन्धादिलक्षणोपनीतिक्रिया यस्य स तथोक्तः । द्विजः-द्विजाँतो मातगर्भे जिनसमयज्ञानगर्भे चोत्पादाद् द्विजो ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशामन्यतमः। 'त्रयो वर्णा द्विजातयः' इति वचनात् ॥१९॥ अथ सहजामाहायर्या चालोकिकी गुणसम्पदमुद्वहतो भव्यान् यथासंभवमवगमयन्नाह जाता जैनकुले पुरा जिनवृषाभ्यासानुभावाद्गुण___ येऽयत्नोपनतैः स्फुरन्ति सुकृतामग्रेसराः केऽपि ते । येऽप्युत्पद्य कुदृक्कुले विधिवशाद्दीक्षोचिते स्वं गुण विद्याशिल्पविमुक्तवृत्तिनि पुनन्त्यन्वीरते तेऽपि तान् ॥२०॥ निर्मल बुद्धि होती है । इसी इलोकका अर्थ एक विदुषी साध्वीने इसी प्रकार किया है-'इस प्रकार जीवन पर्यन्तके लिए मद्यपानादि महापापोंको छोड़कर विशुद्धि बुद्धि हो गयी है जिसकी। __ और इस श्लोककी उत्थानिकामें उन्होंने पं. आशाधरजीकी संस्कृत टीकाका अनुसरण करते हुए लिखा है-'जो पूर्वोक्त रीतिसे सम्यग्दर्शनपूर्वक अष्ट मूलगुणोंका पालन करते हैं।' एक तरफ़ सम्यग्दर्शनपूर्वक अष्ट मूलगुणों के पालनकी बात और दूसरी ओर अष्ट मूलगुण पूर्वक सम्यग्दर्शन होनेकी बात परस्पर विरुद्ध है । पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें 'शुद्धधी: का अर्थ 'सम्यक्त्व विशुद्ध बुद्धिः' किया है। अमृतचन्द्रजीके 'शुद्धधियः' का भी यही अर्थ है। जिनशासनके अनुसार सम्यग्दर्शनके बिना बुद्धि विशुद्ध होती ही नहीं। हेयको हेय रूपसे और उपादेयको उपादेय रूपसे जानकर श्रद्धा होना ही बुद्धिको विशुद्धता है । यह सम्यक्त्वके होनेपर ही होती है। सम्यक्त्वके बिना तो अष्ट मूलगुण धारण भी व्रतकी कोटिमें नहीं आता । अस्तु, अतः जिनधर्म श्रवणकी यह योग्यता विशेष धर्म-जैसे आगम ग्रन्थ आदि हैं उन्हींके श्रवणसे सम्बद्ध होना चाहिए। सामान्य जिनधर्मके श्रवणका अधिकार तो सभीको है। शायद इसीसे आशाधरजीके बाद रचे गये श्रावकाचारोंमें यह कथन किसीने नहीं किया कि अमुक व्यक्ति ही जिनधर्मको सुननेका अधिकारी है। आशाधरजीने महापुराणसे एक श्लोक उद्धृत किया है जिसमें कहा है कि मद्य, मांस और पाँच उदम्बर फल तथा हिंसादिका त्याग सार्वकालिक व्रत है। किन्तु इसमें जिनधर्मके श्रवणकी अधिकारितावाली बात नहीं है । यह तो महापुराणके भी उत्तरकालीन दसवीं शताब्दीकी चर्चा है जब लोगोंका ध्यान सम्भवतया उस ओर कम हो गया होगा ॥१९॥ आगे जैनकुलमें जन्म लेकर जन्मसे अष्ट मूलगुणोंका पालन करनेवाले और दीक्षाके योग्य मिथ्यादृष्टि कुलमें जन्म लेकर अवतार आदि क्रियाओंके द्वारा अपनेको पवित्र करनेवाले भव्योंके माहात्म्यका वर्णन करते हैं पूर्वजन्ममें सर्वज्ञदेवके द्वारा कहे गये धर्म के अभ्यासके माहात्म्यसे जो जैन कुलमें उत्पन्न होकर अपनेको बिना प्रयत्नके प्राप्त हुए सम्यक्त्व आदि गुणोंसे लोगोंके चित्तमें चमत्कार करते हैं वे पुण्यशालियोंके मुखिया बहुत थोड़े हैं। और जो मिथ्यात्व सहचारी पुण्य कर्मके उदयसे विद्या और शिल्पसे आजीविका न करनेवाले, अतएव दीक्षाके योग्य मिथ्यादृष्टि कुलमें भी जन्म लेकर अपनेको सम्यक्त्व आदि गुणोंसे पवित्र करते हैं वे भी उन जैनकुलमें जन्म लेनेवालोंका ही अनुसरण करते हैं अर्थात् उन्हींके समान होते हैं ॥२०॥ १. सागारधर्मामृत-प्रकाशिका सौ. भवरी देवी पांड्या धर्मपत्नी सेठ चांदमलनी सुजानगढ़ । १९७२ । सा.-९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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