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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय अथैव कृतपरिकर्मणा पाक्षिकश्रावकेण स्थूलहिंसादिविरतिरपि यथात्मशक्ति भावनीयेत्युपदेशार्थमाहस्थूलहिसानृतस्तेयमैथुन ग्रन्थवर्जनम् । पापभीरुतयाऽभ्यसेद् बलवीर्यानिगूहकः ॥१६॥ पापभीरुतया न तु राजादिभयेन ॥१६॥ द्यूते हिंसानृतस्ते लोभमायामये सजन् । क्व स्वं क्षिपति नानर्थे वेश्याखेटान्यदारवत् ॥१७॥ स्वं - आत्मानं ज्ञाति च । अनर्थे - अधर्मादिनामभावे व्याप वा (?) । उक्तं च तथा- 'सर्वानर्थं प्रथनं मथनं शौचस्य सद्म मायायाः । दूरात्परिहर्तव्यं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् ॥' [ पुरुषार्थ. १४६ ] 'कौपीनं वसनं कदन्नमशनं शय्या धरा पांसुला, जल्पाश्लीलगिरः कुटुम्बकजनद्रोहः सहाया विटाः । व्यापाराः परवञ्चनानि सुहृदश्चौरा महान्तो द्विषः, प्रायः सैष दुरोदरव्यसनिनः संसारवासक्रमः ॥' [ ] आगे कहते हैं कि इस प्रकार मद्यादि त्यागके अभ्यासी पाक्षिक श्रावकको अपनी शक्तिके अनुसार स्थूल हिंसा आदि पाँच पापोंसे विरतिका भी अभ्यास करना चाहिएअपने बल और वीर्यको न छिपाकर अर्थात् अपनी अन्तरंग और शारीरिक शक्तिके अनुसार पाक्षिक श्रावकको पापके भय से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल मैथुन और स्थूल परिग्रह त्यागका अभ्यास करना चाहिए ||१६|| Jain Education International ५९ विशेषार्थ - आहार आदिसे उत्पन्न शक्तिको बल कहते हैं और नैसर्गिक शक्तिको वीर्य कहते हैं | अपनी शक्ति के अनुसार पाक्षिक श्रावकको पाँच अणुव्रतोंके पालनका भी अभ्यास करना चाहिए | वह भी यह मानकर करना चाहिए कि हिंसा आदि पाप हैं । इनके करनेसे पापकर्मका बन्ध होता है । यदि कोई राजभय या सामाजिक भयसे इन पापकार्योंको नहीं करता तो उसे व्रत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ऐसे व्यक्ति प्रायः छिपकर पाप करते हुए नहीं सकुचाते । किन्तु व्रती तो पाप करनेका अवसर मिलनेपर भी पापके भय से पापकार्य नहीं करता । और तभी उसके पूर्व अर्जित कर्मोंकी निर्जरा होती है ॥ १६ ॥ आगे कहते हैं कि इस प्रकार स्थूल हिंसा आदिकी विरतिका अभ्यास करनेवाले पाक्षिक श्रावकको वेश्या आदिकी तरह जुआ खेलने आदि में भी असक्ति नहीं करना चाहिए वेश्यागमन, शिकार खेलना और परस्त्रीगमनमें आसक्त मनुष्यकी तरह हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ और मायाचारसे भरे जुए में आसक्त मनुष्य अपनेको, अपने सम्बन्धियोंको किस अनर्थ में नहीं डालता । अर्थात् सभी बुराइयों में डालता है ||१७|| विशेषार्थ - पाक्षिक श्रावकको पाँच पापोंके त्यागका अभ्यास करनेकी तरह सात व्यसनोंके भी त्यागका अभ्यास करना चाहिए । सात व्यसनों में जुआ सिरमौर है । इसलिए उसपर जोर दिया है। वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, जुआ खेलना आदिके व्यसनी मनुष्य स्वयं तो विपत्तियों में पड़ते हैं अपने परिवार वगैरह को भी विपत्ति में डालते हैं । यहाँ इतना विशेष For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ १२ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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