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धर्मामृत ( सागार )
पालन करता है किन्तु कर्तव्यबुद्धिसे करता है, ममत्वबुद्धिसे नहीं । इस तरहके चिन्तन और अभ्यास से गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी उसकी वही स्थिति होती है जो जलमें रहनेवाले कमलकी है । ऐसा सद्गृहस्थ ही सच्चा धर्मात्मा होता है । उसका धर्म उसकी आत्मासे सम्बद्ध होता है, शरीरसे नहीं । उसका शरीर भी उसके इस आत्मधर्मका एक सहायक होता है । उसका और उससे सम्बद्ध वस्तुओंका वह पालन करता है, संरक्षण करता है; खाता है, पीता है, भोग भोगता है; व्यापार करता है, लोकाचार करता है । सब कुछ करता है किन्तु करते हुए भी नहीं करता; क्योंकि कर्तृत्वभावमें उसकी आसक्ति नहीं । अतः वह अपनी शारीरिक आसक्तिसे प्रेरित होकर किसीको सताता नहीं हैं, अनुचित साधनोंसे धन संचय नहीं करता, व्यापार-व्यवहारमें असत्यका अवलम्बन नहीं लेता, काला बाजार नहीं करता । आय-व्ययका सन्तुलन रखता है । आवश्यकतासे अधिक संचय नहीं करता । परस्त्री मात्रको माता, बहन या बेटीके तुल्य मानता है । उसका यह जीवनव्यवहार न केवल उसे किन्तु समाजको भी सुखी करनेमें सहायक होता । यही सच्चा गृहस्थ धर्म है । इसी गृहस्थ धर्मका पालन करनेकी प्रेरणा सागारधर्मामृतमें हैं । उसीको सम्यक्त्व, अणुव्रत आदि कहा है । धर्मका प्रारम्भ सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शनसे होता है । सम्यग्दृष्टि ही सच्चा धर्मात्मा होता है । जिसकी दृष्टि, श्रद्धा, रुचि या प्रतीति ही सम्यक् नहीं है वह साधु भी हो जाये, फिर भी धर्मात्मा
कहलानेका पात्र नहीं है । जिसे शरीरादिसे भिन्न शुद्ध आत्मद्रव्यकी श्रद्धा है, रुचि है, प्रतीति है, भले ही वह अभी संसारमें फँसा हो किन्तु वह धर्मात्मा है, उसने धर्मके मूलको पहचान लिया है अतः अब वह जो कुछ करेगा वह उसीकी प्राप्तिके लिए करेगा । अब वह लक्ष्यभ्रष्ट नहीं हो सकेगा । अन्यथा संसार, शरीर और भोगों में आसक्ति रखते हुए उसका सारा व्रताचरण संसारको बढ़ानेवाला ही होगा, संसारको काटनेवाला नहीं । अतः धर्मका मूल सम्यक्त्व और धर्म चारित्र है । वह चारित्र अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप है । इनको गृहस्थ एकदेश पालता है और मुनि सर्वदेश पालता है ।
असल में तो अहिंसा ही जैन धर्मका आचार और विचार है । जो गृहस्थ सन्तोषपूर्वक जीवन-यापन करता है, सीमित आरम्भ और सीमित परिग्रह रखता है वही अहिंसक है । और ऐसे अहिंसक सद्गृहस्थ ही अहिंसक समाजकी रचना कर सकते हैं । जैन धर्म ऐसे अहिंसक समाजकी रचनाका ही आदर्श रखता है । किन्तु मनुष्यका लोभ और उसकी संग्रह वृत्ति उसे संचयी और लोभी बना देती है । इसीके साथ वह व्रतादिका पालन करके धनात्माके साथ धर्मात्मा भी बनना चाहता है । किन्तु धनात्मा धर्मात्मा नहीं हो सकता और धर्मात्मा धनात्मा नहीं हो सकता । यह गृहस्थ धर्मकी पहली सीख है । आचार्य गुणभद्र लिख गये हैं
"शुद्धैर्धनैविवर्धन्ते सतामपि न संपदः ।
न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः ॥"
सज्जनोंकी भी सम्पदा शुद्ध — न्यायोपार्जित द्रव्यसे नहीं बढ़ती । नदियाँ स्वच्छ जलसे कभी भी परिपूर्ण नहीं देखी जातीं । अस्तु,
भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना जिन्होंने की थी, वे दानवीर साहू शान्तिप्रसाद भी स्वर्गवासी हो गये । उसकी अध्यक्षा उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा रानी उनसे पूर्व ही दिवंगत हो चुकी । यह हम लोगोंके लिए अत्यन्त दुःखद है । प्रसन्नता और सन्तोषको बात यह है कि साहू श्रेयांस प्रसादने अध्यक्षपदका भार वहन किया है | हम लोग दिवंगत उदारमना साहूजीके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
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कैलाशचन्द्र शास्त्री ज्योतिप्रसाद जैन
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