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________________ प्रस्तावना पं. आशाधर और उनके धर्मामृतको सर्वप्रथम प्रकाशमें लानेका श्रेय स्व. श्री नाथूरामजी प्रेमीको है। उन्होंने ही स्व. सेठ माणिकचन्द हीराचन्द बम्बईकी स्मृतिमें स्थापित ग्रन्थमालाके मन्त्रीके रूपमें भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका सहित सागारधर्मामृतका संस्करण संवत् १९७२ में प्रकाशित किया था। उसका मूल्य आठ आना था। संवत् १९७२ में ही मैं स्याद्वाद महाविद्यालयमें प्रविष्ट हुआ था और अँगरेजीमें अच्छे नम्बर प्राप्त करनेके उपलक्ष्यमें मुझे सागारधर्मामृतका वह संस्करण पारितोषिक रूपमें प्राप्त हुआ था। तथा इन पंक्तियोंको लिखते समय भी वह मेरे सामने उपस्थित है। उसके पश्चात् सागारधर्मामृतके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए, किन्तु इतना सुन्दर, सस्ता, शुद्ध और आकर्षक संस्करण प्रकाशित नहीं हो सका। सागारधर्मामतके उक्त संस्करणके प्रकाशन वर्ष सन १९१५ में ही पं. कल्लपा भरमप्पा निटवेने अपने मराठी अनुवादके साथ कोल्हापुरसे एक संस्करण प्रकाशित किया। यह बहत्काय संस्करण भी सजिल्द और आकर्षक था। इसमें भी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका दी गयी है। उसके प्राक्कथनमें पं. निटवेने लिखा था कि 'मैंने ज्ञानदीपिकासे स्थान-स्थानपर टिप्पण दिये हैं। वह ज्ञानदीपिका स्वतन्त्र रूपसे देनेको थी। किन्तु हमारे दुर्भाग्यसे सागारधर्मामृतकी प्राचीन पुस्तक आगमें भस्म हो गयी। दूसरी आज मिलती नहीं। सौभाग्यसे इस ग्रन्थके पुनः प्रकाशनका प्रसंग आया तो किसी भी तरह पंजिकाका सम्पादन करके प्रकाशित करनेकी बलवती आशा है।' श्री निटवेके इस उल्लेखपर-से ज्ञानदीपिकाके उपलब्ध होनेकी आशा धूमिल हो गयी थी। किन्तु स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्येके प्रयत्नसे श्री जीवराजग्रन्थमाला शोलापुरसे सागारधर्मामृतको एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई। यह प्रति रूलदार फुलिस्केप आकारके आधुनिक कागजपर सुन्दर नागरी अक्षरोंमें एक-एक लाइन छोड़कर लिखी हुई है। लिपिक बहुत ही कुशल और भाषा तथा विषयका भी पण्डित प्रतीत होता हैं। उसने जिस प्रतिसे यह प्रतिलिपि की है उसके 'पेज टु पेज' प्रतिलिपि की है और मूल प्रतिके पृष्ठ नम्बर भी देता गया है। बीच-बीच में कहीं-कहीं त्रुटित भी है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि जिस प्रतिके आगमें जलनेकी बात कही गयी है उसीपर-से यह प्रतिलिपि की गयी हो। हमें जो प्रति प्राप्त हुई उसमें भव्यकुमुदचन्द्रिका टीकाकी भी प्रति है। दोनों अलग-अलग होनेपर भी हिली-मिली थीं। हमने दोनोंको अलग-अलग किया तो हमें लगा कि जो प्रति जली उसीसे ये दोनों प्रतिलिपियां की गयी हैं। सौभाग्यसे भ. कु. च. को विशेष क्षति पहुँची और ज्ञानदीपिकाको कम । भ. कु. च. की प्रतियाँ तो सुलभ हैं किन्तु ज्ञानदीपिका दुर्लभ है। उसी प्रतिके आधारसे हमने उसकी प्रेसकापी तैयार की। रिक्त पाठोंकी उनके आदि और अन्त अक्षरोंके आधारपर भ. कु. च. से पूर्ति की और उन्हें ब्रैकेटमें दिया है। ज्ञानदीपिका उद्धरणबहुल है । अतः जिन उद्धरणोंका आधार मिला उन्हें मूलके आधारपर शुद्ध किया है किन्तु जिनका आधार नहीं मिला, उन्हें यथासम्भव शुद्ध करनेकी कोशिश करके छोड़ दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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