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________________ धर्मामृत ( सागार) अथ मांसं सतां भक्षणीयं प्राण्यङ्गत्वान्मुद्गादिवदित्यनुमानाभिधानग्रहावेशान्मांसभक्षणदक्षिणान् प्रत्याह प्राण्यङ्गत्वे समेऽप्यन्नं भोज्यं मांसं न धार्मिकैः। भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जनैर्जायैव नाम्बिका ॥१०॥ अन्नं भोज्यं रसरक्तविकारजवाभावात् । न हि मांसं यथा रसरक्तविकाराज्जायते तथा मुद्गादि धान्यमपि । न च प्राणिकायत्वाद् धान्यस्यापि मांसत्वमुपकल्प्यम्, यो यः प्राणिकायः स स मांसमिति व्याप्तेरभावात् । अन्यथा वृक्षत्वादशोकादीनामपि निम्बत्वकल्पनाप्रसङ्गात् । तदाह 'मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । यद्वन्निम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ।।' [ ] कि च, प्राण्यङ्गत्वाविशेषेऽपि यथा लोके शङ्खादिकं पवित्रत्वेन प्रसिद्धं न तथाऽस्थ्यादिकम् । एवमोदनादिकमेव भक्ष्यमभक्ष्यं तु मांसचम-रुधिर-मेदो-मज्जादिकं द्रव्यभावहिंसाभूयस्त्वात् । यदाह 'द्विजाण्डजनिहन्तृणां यथा पापं विशिष्यते । जीवयोगाविशेषेऽपि तथा फलपलाशिनाम् ।। स्त्रीत्वपेयत्वसामान्याद्दारवारिवदीहताम् । एष वादी वदन्नेवं मातृमद्यसमागमे ।।' [ सोम. उपा., ३०२-३०३ श्लो. ] कि च 'शुद्धं दुग्धं न गोमांसं वस्तुवैचित्र्यमीदृशम् । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ॥' [ सो. उपा. ३०४ ] कुछ मांसभक्षणके प्रेमी यह कहते सुने जाते हैं कि जैसे अन्न जीवका शरीर है वैसे ही मांस भी जीवका शरीर है अतः अन्नकी तरह मांस भी खाद्य है। उन्हें लक्ष करके ग्रन्थकार कहते हैं यद्यपि अन्न भी प्राणीका अंग है और मांस भी प्राणीका अंग है इस तरह दोनों में ही समानता होनेपर भी धार्मिकों को अन्न ही खाने योग्य है, मांस नहीं। जैसे माता भी स्त्री है और पत्नी भी स्त्री है, इस तरह स्त्रीपनेसे दोनों ही समान हैं फिर भी मनुष्य पत्नीको ही भोगते हैं, माताको नहीं ॥१०॥ विशेषार्थ-आचार्य सोमदेवने अपने उपासकाचारमें इस कथनका प्रतिवाद करते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है जिससे प्रकट होता है कि यह चर्चा उनसे भी पुरानी है । उसमें कहा है-मांस जीवका शरीर है यह ठीक है किन्तु जो जीवका शरीर है वह मांस है ऐसी व्याप्ति नहीं है। जैसे नीम वृक्ष है यह ठीक है। किन्तु जो-जो वृक्ष है वह नीम है यह कहना ठीक नहीं है । तथा जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनों जीव हैं। फिर भी पक्षीको मारनेकी अपेक्षा ब्राह्मणको मारने में ज्यादा पाप है। वैसे ही फल भी जीवका शरीर है और मांस भी जीवका शरीर है। किन्तु फल खानेकी अपेक्षा मांस खाने में ज्यादा पाप है। जो यह कहता है कि फल और मांस दोनों ही जीवका शरीर होनेसे समान हैं। उसके लिए पत्नी और माता दोनों ही स्त्री होनेसे समान हैं तथा शराब और पानी दोनों ही पेय होनेसे समान है। अतः जैसे वह पानी और पत्नीका उपभोग करता है वैसे ही शराब और माताका भी उपभोग वह क्यों नहीं करता। गौका दूध शुद्ध है किन्तु गोमांस शुद्ध नहीं है । वस्तुका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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