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एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय)
अथवा,
'हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे ।
विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥' [ सो. उपा., ३०५] अपि च,
'पञ्चेन्द्रियस्य कस्यापि वधे तन्मांसभक्षणे। यथा हि नरकप्राप्तिर्न तथा धान्यभोजनात् ।। धान्यपाके प्राणिवधः परमेकोऽवशिष्यते । गृहिणां देशयमिनां स तु नात्यन्तबाधकः ।। मांसखादकति विमृशन्तः सस्यभोजनरता इह सन्तः । प्राप्नुवन्ति सुखसंपदमुच्चै नशासनजुषो गृहिणोऽपि ॥' [
] ॥१०॥ अथ क्रमप्राप्तान् मधुदोषानाहमधुकृवातघातोत्थं मध्वशुच्यपि विन्दुशः।
१२ खादन् बध्नात्यघं सप्तनामदाहाहंसोऽधिकम् ॥११॥ मधुकृवातः-मक्षिकाभ्रमरादीनां मधुकरप्राणिनां व्रातः सङ्घातः । अशुचिप्राणिनिर्यासजत्वात् ।। अपवित्रं म्लेच्छलालादिसम्पृक्त्वात् कुत्स्यं च । अपि च,
'मक्षिकागर्भसंभूत-बालाण्डकनिपीडनात् । जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कललाकृति ॥ [ सो. उपा., २९४ श्लो.]
वैचित्र्य इसी प्रकार है। इसी तरह मांस और दूधका एक कारण होनेपर भी मांस छोड़ने योग्य है और दूध पीने योग्य है। जैसे एक विषवृक्षका पत्ता आयुवर्धक होता है और जड़ मृत्युका कारण होती है। मांस भी शरीरका हिस्सा है और घी भी शरीरका हिस्सा है। फिर भी मांसमें दोष है धीमें नहीं। जैसे ब्राह्मणोंमें जीभसे शराबका स्पर्श करने में दोष है, पैरमें लगानेमें नहीं। इसलिए जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें बौद्ध, सांख्य, चार्वाक, वैदिक और शैवोंके मतोंकी परवाह न करके मांसका त्याग करना चाहिए। जैसे जो परस्त्रीगामी पुरुष अपनी माताके साथ सम्भोग करता है वह दो पाप करता है। एक तो परस्त्र
परस्त्रीगमनका पाप करता है दूसरे माताके साथ सम्भोग करनेका पाप करता है। उसी तरह जो मनुष्य धर्मबुद्धिसे लालसापूर्वक मांसभक्षण करता है वह भी डबल पाप करता है । एक तो वह मांस खाता है, दूसरे धर्म बुद्धिसे खाता है। इस तरह शास्त्रकारोंने मांसको हिंसापरक मानकर उसका निषेध किया है । आजके वैज्ञानिक युगमें मांसको मनुष्यका प्राकृतिक आहार नहीं माना जाता। मोसभोजी पशुओंके शरीरकी रचना भिन्न ही प्रकारकी होती है। उनके दाँतोंकी रचना भी मांसभक्षणके अनुकूल होती है । मनुष्यके शरीरकी रचना उससे विपरीत है । स्वास्थ्यकी दृष्टिसे भी मांस भोजन बुरा है । प्राकृतिक चिकित्सामें वह त्याज्य माना गया है। तामसिक है। अतः मांसभक्षण नहीं करना चाहिए ॥१०॥
अब क्रमानुसार मधुके दोषोंको कहते हैं
मधुमक्खियोंके समूह के घातसे उत्पन्न अपवित्र मधुकी एक बँदको भी खानेवाला सात गांवोंको जलानेसे जितना पाप होता है, उससे भी अधिक पापका बन्ध करता है॥११॥
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