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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) प्राणिहिंसापितं वर्षमर्पयत्तरसं तराम् । रसयित्वा नुशंसः स्वं विवर्तयति संसृतौ ॥८॥ तरसं-मांसम् । तराम्-अतिशायनेऽव्ययमिदम् । मृष्टान्नादिभ्योऽतिशयेन प्राणिघातादु [-त्पन्नं तद्वद्दपकरं चे-] त्यर्थः । रसयित्वा-आस्वाद्य ॥८॥ अथ सांकल्पिकस्यापि पलभक्षणस्य दोषं तद्विरतिनिष्ठायाश्च गुणमुदाहरणद्वारेण दर्शयति भ्रमति पिशिताशनाभिध्यानादपि सौरसेनवत् कुगतिः। तद्विरतिरतः सुर्गात श्रयति नरश्चण्डवत् खदिरवद्वा ॥९॥ चण्डवत्-चण्डो नामोज्जयिन्यां मातङ्गो यथा। खदिरवत्-खदिरसारो नाम भिल्लराजो यथा ॥९॥ मांस पंचेन्द्रिय प्राणीको मारनेसे ही प्राप्त होता है और उसके खानेसे अत्यन्त मद होता है। उसे खाकर क्रूर प्राणी अपनेको संसार में भ्रमण कराता है ॥८॥ विशेषार्थ-आचार्य अमितगतिने भी कहा है कि तीनों लोकोंमें मांसकी उत्पत्ति जीवघातसे ही होती है। उसके बिना मांस नहीं मिलता। अतः पंचेन्द्रिय प्राणीका घात होनेसे हिंसा होती है। एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रियकी हिंसामें अत्यधिक पाप है क्योंकि उसकी अनुभवन शक्ति विशेष है। वह जीना चाहता है मरना नहीं चाहता। अतः जो जीवको मारता है, खाता है, मांस बेचता है, उसे अच्छा मानता है, मांस-भक्षणका प्रचार करता है और मांस पकाता है ये छहों ही पापी हैं। जो मांसके स्वादके लोभी है वे मांस-मदिराका सेवन करके विषयासक्त रहते हैं। अतः मांस द्रव्यहिंसाके साथ भावहिंसाका भी कारण है। अतः मांसभक्षक संसारमें पंचपरावर्तन करते हुए भ्रमण करता है ।।८।। ___ आगे मांसभक्षणके विचारको भी दोष और उसके त्यागका गुण दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं मांसभक्षणके संकल्प मात्रसे जीव सौरसेन राजाकी तरह कुगतियोंमें नमण करता है। और जो मांससेवनके त्यागमें आसक्त होता है वह चण्ड नामक चाण्डाल या खदिरसार नामक भील राजाकी तरह सुगतिमें जाता है ।।९।। विशेषार्थ-मांसभक्षणकी तो बात ही क्या, मांस खानेका इरादा करने मात्रसे मनुष्यको दुर्गतियोंमें भ्रमण करना पड़ता है। इसका उदाहरण राजा सौरसेन है जो मांस खानेका विचार करता है किन्तु अपवाद, भय और राजकार्यवश खा नहीं पाता। वह मरकर मत्स्य होता है और फिर नरकमें जाता है। और मांसका कुछ समयके लिए त्याग करनेवाला चण्डनामका मातंग सद्गति पाता है। इन दोनोंकी कथा सोमदेवके उपासकाध्ययनमें (पृ. १४०-१४३ ) वर्णित है। खदिरसार एक भील था। शिकार उसका व्यवसाय था। वह मांस कैसे छोड़ सकता। किन्तु दूरदर्शी मुनिराजने उसकी विवशता जानकर उसे केवल कौएका मांस छुड़ाया। एक बार वह बीमार हुआ और वैद्यने उसे कौएका मांस खाना बतलाया। किन्तु उसने नहीं खाया। इस त्यागसे ही उसे सद्गति प्राप्त हुई ॥९॥ १. अमित. श्राव. ५।१३-२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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